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परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
१७. मेघ द्वारा उत्पन्न बिन्दुपात से रज एवं रेणु का नाश हो जाता
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१८. पंचवर्ण सुन्दर पुष्प- समुदाय प्रकट होता है;
१६. परमात्मा के समीप का परिवेश अनेक प्रकार के धूप और धुएं से सुगन्धित हो जाता है अर्थात् अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का अभाव होता है;
२०. परमात्मा के दोनों ओर आभूषणों से सुसज्जित यक्ष चामर दुलाते है;
२१. उपदेश (देशना) के समय अरिहन्त भगवान के मुख से एक योजन का भी उल्लंघन करने वाला हृदयंगम स्वर निकलता है; २२. परमात्मा की वाणी अर्धमागधी भाषा में होती है; २३. परमात्मा की वाणी को आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद आदि सभी प्राणी अपनी भाषा में समझ जाते हैं;
२४. बद्ध-वैरवाले देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष गन्धर्वादि परमात्मा के पादमूल में प्रसन्नचित्त होकर उनकी वाणी को श्रवण करते हैं:
२५. अन्य तीर्थ वाले प्रावचनिक भी परमात्मा को नमस्कार करते है; और
२६. अन्य तीर्थवाले विद्वान परमात्मा की शरण में आकर निरूत्तर हो जाते है ।
जहाँ तीर्थंकर का विहार होता है वहाँ पच्चीस योजन तक निम्न बातें नहीं होती हैं :
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२७. धान्य नष्ट करने वाले चूहे आदि प्राणियों की उत्पत्ति नहीं होती;
२८. महामारी (संक्रामक बीमारी) नहीं होती;
२६. अपनी सेना विद्रोह नहीं करती;
३०. दूसरे राजा की सेना उपद्रव नहीं करती; ३१. अतिवृष्टि नहीं होती;
३२. अनावृष्टि नहीं होती;
३३. दुर्भिक्ष नहीं होता; और
३४. परमात्मा के विहार से पूर्व उत्पन्न हुई व्याधियाँ भी शीघ्र ही शान्त हो जाती हैं और रूधिर वृष्टि और ज्वरादि का प्रकोप नहीं होता है ।
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