Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 383
________________ ३३२ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा कहलाते हैं।५२ श्रीमद् राजचन्द्रजी लिखते हैं कि वीतराग अवस्था में मन, वचन और काया के योग के कारण एक समय की स्थिति वाले सातावेदनीयकर्म का ग्रहण होता है। वह भी आयुष्यकर्म की अन्तिम घड़ी अर्थात् अयोगी गुणस्थान में छूट जाता है।५३ श्रीमद् रामचन्द्रजी आगे लिखते हैं कि जिनके कर्मरूपी मैल एवं योग की चंचलता नष्ट हो गई है, वे परमात्मा शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निराकार एवं चैतन्यमूर्ति रूप में स्थित रहते हैं। वे परमात्मा अगुरूलघु, अमूर्त एवं सहज स्वरूपी हैं। यह परमात्मदशा चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में होती है।५४ तब अरहन्त परमात्मा पूर्वप्रयोगादि कारणों से उर्ध्वगति करते हैं और सिद्धालय में स्थित हो जाते हैं। वे परमात्मा सादि अनन्त अनन्तसमाधि सुख में लीन होते हुए अनन्तदर्शन एवं अनन्तज्ञान से युक्त होते हैं।५५ ५.३ तीर्थंकर का स्वरूप जैन धर्म में तीर्थंकर को धर्मतीर्थ का संस्थापक माना जाता है। उन्हें धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाला धर्म का प्रदाता, धर्म का -वही । १५३ १५२ 'वेदनीयादि चार कर्म वर्ते जहाँ, बली सींदरीवत् आकृतिमात्र जो; ते देहायुष आधीन जेनी स्थिति छे, आयुष पूर्णे मटिये दैहिक पात्र जो ।। १६ ।।' 'मन वचन काया ने कर्मनी वर्गणा, छूटे जहा सकल पुद्गल संबंध जो; एवं अयोगी गुणस्थानक त्यां वर्ततुं, महाभाग्य सुखदायक पूर्ण अबंध जो ।। १७ ।।' 'एक परमाणु मात्रनी मले न स्पर्शता, पूर्ण कलंकरहित अडोल स्वरूप जो; शुद्ध निरंजन चैतन्यमूर्ति अनन्यमय, अगुरूलघु अमूर्त सहज पद रूप जो ।। १८ ।' 'पूर्वप्रयोगादि कारणना योगथी, उर्ध्वगमन सिद्धालय प्राप्त सुस्थित जो; सादि अनन्त अनन्त समाधि सुखमां, अनन्तदर्शन ज्ञान अनन्त सहित जो ।। २६ । -वही । १५४ -वही। १५५ -वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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