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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
कहा जाता है । आगे वे लिखते हैं कि वह आत्मा शेष अघातिया कर्मों का क्षय करके सकल परमात्मा (सिद्ध परमात्मा) कहलाती है । परमात्मा अनन्तकाल से गुलाम बनाने वाली इस देह के ममत्व से विरक्त रहते हैं। वे कहते हैं कि “हे साधक ! तू परमात्म अवस्था को उपलब्ध करके केवलज्ञान स्वरूप से युक्त होकर निज-स्वस्वरूप से सुशोभित होकर सुखी हो जा।” इस प्रकार परमात्मा अव्याबाध सुखानुभूति में लीन रहते हैं। आत्मानुशासनम् में भी अर्हत परमात्मा और सिद्ध परमात्मा ये दो भेद स्वीकार किये गये हैं । ११६
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५.२.६ हेमचन्द्र के योगशास्त्र के अनुसार परमात्मा
का स्वरूप
योगशास्त्र हेमचन्द्राचार्य द्वारा रचित है । वे नवम प्रकाश में परमात्मा के स्वरूप को व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं कि परमात्मा के दो प्रकार हैं :
१. अरिहन्त परमात्मा; और २. सिद्ध परमात्मा ।
अरिहन्त परमात्मा समवसरण में स्थित सर्व अतिशयों से युक्त एवं केवलज्ञान से सुशोभित होते हैं । राग-द्वेष, मोह-अज्ञान आदि विकारों से रहित होते हैं । वे शान्त, कान्त, मनोहर आदि समस्त प्रशान्त लक्षणों से युक्त हैं । रूपस्थध्यान का अभ्यास करने पर आत्मा को तन्मयता उपलब्ध होते ही वह आत्मा स्पष्ट रूप से सर्वज्ञ परमात्मा के समान स्वयं को जानती है । " जो सर्वज्ञ भगवान हैं, निसन्देह वही मैं हूँ।” इस प्रकार सर्वज्ञ परमात्मा में तन्मयता हो जाने पर आत्मा परमात्मदशा को उपलब्ध करती है।७ वीतराग का ध्यान करनेवाली आत्मा स्वयं वीतरागदशा को उपलब्ध करती है । आत्मा वीतराग परमात्मा होकर कर्मों या वासनाओं से मुक्त हो जाती है। वे आगे लिखते हैं कि जैसे स्फटिक रत्न के पास जिस
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११६ ‘आत्मान्नाविलोपनात्मचरितैरासार्दुरात्मा
चिरं ।
स्वात्मा स्याः सकलात्मनीन चरितैरात्मी कृतैरात्मनः ।।
आत्मेत्यां परमात्मतां प्रतिपतन् प्रत्यात्मविधात्मकः ।
स्वात्मोत्थात्मसुखो निषीदसि लसननध्यात्ममध्यात्मना ।। १६३ ।।' -आत्मानुशासनम् संस्कृतटीका ।
११७ योगशास्त्र ६ / १–१२ ।
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