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परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
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रूपी-अरूपी पदार्थों का इन्द्रियों की सहायता के बिना ज्ञान होता है। किन्तु आत्मा के शुद्ध स्वरूप का बोध केवलज्ञान का आधार है। क्योंकि इसके अवलम्बन से ही केवलज्ञानमय परमात्मा के स्वरूप का साक्षात्कार होता है। - आगे आनन्दघनजी साधक को सावधान करते हुए और जीवन की नश्वरता का परिचय देते हुए लिखते हैं :
'क्या सोवै उठि जाग बाउ रे। अंजलि जल ज्यूं आउ घटतु है, देत पहरिया धारि धाउ रे। इन्द्र, चंद्र, नागिंद, मुनिंद चले, कौन राजा पतिसाह राउ रे। भ्रमत-भ्रमत भव जलधि पाई ते, भगवन्त भगति सुभाव नाउ रे। कहा विलम्ब करै अब बौरे, तरि भवजल-निधि पार पाउ रे।
आनन्दधन चेतनमय मुरति सुद्ध निरंजनदेव ध्याउ रे।३६ अर्थात् अरे मूढ़! मोह-निद्रा में क्यों सो रहा है? यदि जीवन में कुछ पाना हो तो मोह-निद्रा से जाग्रत हो। समय तेरे हाथों से फिसल रहा है। जिस प्रकार अंजलि में स्थित जल एक-एक बन्द करके रिक्त हो जाता है, वैसे ही आयु भी क्षण-क्षण में क्षीण होती है। जैसे प्रतिहारी घण्टा बजाकर सावधान करता है कि जो घड़ी बीत गई है वह पुनः लौटकर नहीं आने वाली है। इस संसार से इन्द्र, मुनीन्द्र, योगीन्द्र, तीर्थंकर आदि सभी को विदा होना पड़ता है। तो फिर राजा, सम्राट और चक्रवर्ती की क्या बिसात? जब सभी महापुरुष इस दुनिया से चल बसे तो फिर तेरे जीवन का क्या भरोसा है? भवरूपी समुद्र में भ्रमण करते-करते अनमोल प्रबल पुण्योदय से मनुष्य जन्म मिला और परमात्म भक्तिरूप सहज नौका हाथ लग गई है तो अब तनिक भी विलम्ब मत कर। विषय-वासना रूप सागर से पार हो जा। आनन्दघनजी कहते हैं कि : “हे साधक! केवल चैतन्य स्वरूप उस शुद्ध-बुद्ध तथा निरंजन
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१३६ आनन्दघन ग्रन्थावली पद १ ।
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