________________
परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
३२६
परमात्मा में भोग्य और भोक्ताभाव घटित नहीं होता है।१४० पुनः देवचन्द्रजी परमात्मा को अकामी कहते हैं, क्योंकि उनमें कामनाओं का अभाव है। वे सदैव स्वभावदशा में ही रहते हैं - विभावदशा में नहीं रहते हैं। इसलिए परमात्मा में कार्य/कारण भाव भी घटित नहीं होता। वे सर्वज्ञ हैं। सभी तत्वों को जानते हुए भी वे अपनी निष्ठा भावना के कारण उनका वेदन नहीं करते। वे स्वस्वभाव का भोग करते हुए भी भोगी नहीं हैं, क्योंकि उनमें भोगाकाँक्षा का अभाव है। वे अयोगी है फिर भी उपयोगी हैं, क्योंकि जीव उनसे प्रेरणा प्राप्त करके मोक्ष-मार्ग की साधना करते हैं।७२ परमात्मा अनन्त शक्ति के पुंज हैं। फिर भी वे उस शक्ति का प्रयोग नहीं करते हैं; इसलिये वे अप्रयोगी हैं। अनन्त ऐश्वर्य सम्पन्न होकर भी वे पर-पदार्थों के स्वामी नहीं हैं, क्योंकि वे पर-पदार्थ को ग्रहण ही नहीं करते।७३ आत्मा और परमात्मा के अभेद को बताते हुए सुविधिजिन स्तवन में वे लिखते हैं कि द्रव्य की अपेक्षा से आत्माएँ परमात्मस्वरूप ही हैं। जो अपने शुद्ध स्वरूप को जान लेता है, 'स्व' सम्पदा को पहचान लेता है; वही परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है।४४ वे शीतलजिन स्तवन में लिखते हैं कि परमात्मा पूर्ण रूपेण निर्मल और अनन्तचतुष्टय से युक्त हैं। फिर भी परमात्मा का यह स्वरूप ज्ञान के बिना समझना कठिन है। परमात्मा के केवलज्ञान के स्वरूप का विवेचन करते हुए वे इसी शीतलजिन स्तवन में लिखते हैं कि द्रव्यों की अपेक्षा से भी उनके गुण और पर्याय भी अनन्त है। उन अनन्त द्रव्यों के अनन्त गुणों और पर्यायों के वर्गफल की अपेक्षा भी उनका ज्ञान अनन्त है। इसी प्रकार उनका केवलदर्शन भी अनन्त है।५ अन्त में इसी शीतलजिन स्तवन में वे परमात्मा को वचनातीत कहते हुए उनकी अनिर्वचनीयता को भी स्पष्ट करते हैं; क्योंकि परमात्मा के गुणों को
१४० सुमतिजिन स्तवन ५/१। १४१ वही ५/२ । १४२ सुमतिजिन स्तवन ५/३ । १४३ वही ५/५ । १४४ वही ६/६)। १४५ शीतलजिन स्तवन १०/१ ।
-वही। -वही । -वही । -वही ।
-वही। -देवचन्द्रजी ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org