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परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
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हैं। मुक्तात्मा समस्त कर्मों से रहित होती है और अपने ज्ञान-दर्शन स्वभाव में अवस्थित होती है।१३ वह तंरग रहित समुद्र के समान समस्त रागादि विकल्पों से शून्य रहती है। वे परमात्मा सर्वथा क्लेशवर्जित हैं, कृत्यकृत्य, निष्कलंक, निराबाध और सदा आनन्दमय स्वरूप में स्थिर रहते हैं। वे कषाय आदि मल से रहित परम शुद्ध-बुद्ध एवं निष्कल हैं तथा अतीन्द्रिय अनन्त सुखों में लीन हैं। इस प्रकार आचार्य अमितगति ने देहस्थ आत्मा का परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करके अरिहन्त और सिद्ध परमात्मा के स्वरूप को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।१५
५.२.८ गुणभद्र के आत्मानुशासनम् में
परमात्मा का स्वरूप गुणभद्र द्वारा प्रणीत आत्मानुशासनम् के टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य हैं। वे परमात्मा के स्वरूप को व्याख्यायित करते हए लिखते हैं कि
आत्मा अन्तरात्मा से परमात्म अवस्था को प्राप्त करती है, तब संसार के कारणभूत विषयों का त्याग करके, बाह्यदशा से विरक्त होकर वह तप-संयम, अनशन, ऊनोदर एवं रसपरित्याग आदि से कर्मों की निर्जरा करती हुई घाती कर्मों को क्षय करके आर्हन्त्य अवस्था को उपलब्ध करती है, तब उस आत्मा को सकल परमात्मा
-योगसारप्राभृत ७..
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-वही। -वही ।
१३ (क) 'वैद्यायुर्नाम-गोत्राणि योगपद्येन केवली। . शुक्लध्यान-कुठारेण छित्वा गच्छति निर्वृतिम् ।। १४ ।।' (ख) 'कर्मैव भिद्यते नास्य शुक्ल-ध्यान- नियोगतः ।
नासौ विधियते कस्य नेदं वचनमंचितम् ।। १६ ।।' 'कुतर्केऽभिनिवेशोऽतो न युक्तो मुक्ति- काक्षिणाम् ।
आत्मतत्त्वे पुनर्युक्तः सिद्धिसौध-प्रवेशके ।। ५३ ।।' (ख) 'विविक्तमिति चेतनं परम शुद्ध-बुद्धाशयाः
विचिन्त्य सततादृता भवंमपास्य दुःखास्पदम् । निरन्तमपुनर्भवं सुखमतीन्द्रियं स्वात्मजं । समेत्य हतकल्मषं निरूपमं सदैवासते ।। ५४ ।।' 'निरस्तापर संयोगःस्व-स्वभाव-व्यवस्थितः ।
सर्वोत्सुक्यविनिर्मुक्तः स्तिमितोदधि-संनिभः ।। २८ ।।' (ख) 'एकान्त-क्षीण-संक्लेशो निष्ठितार्थो निरंजनः ।
निराबाधःसदानन्दो मुक्तावात्मावतिष्ठते ।। २६ ।।'
-वही ।
११५ (क)
-वही ।
-वही।
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