Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
निवास करने वाला शुद्ध आत्मतत्व ही परमात्मा है। इस प्रकार मुनि रामसिंह आत्मा को ही परमात्मा मानते हैं। आगे पुनः परमात्मा के लक्षणों को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि जो न तो उत्पन्न होता है, न वृद्ध होता है और न मरता है; जो जन्म जरा
और मृत्यु से परे अनन्तज्ञानमय त्रिभुवन का स्वामी है; वही निर्धान्त शिवदेव परमात्मा है। ज्ञातव्य है कि यहाँ मुनि रामसिंह परमात्मा को शक्तिमान शिव के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे शुद्ध आत्मा को शिव के रूप में और उसकी ज्ञानादि शक्तियों को शक्ति के रूप में विवेचित करते हैं। उनका कहना है कि शिव के बिना शक्ति और शक्ति के बिना शिव नहीं होता है। यहाँ उन्होंने आत्मा और उसके ज्ञानादि गुणों में अभेद दिखाकर उनको शिव और शक्ति के रूप में व्याख्यायित किया है। वे कहते हैं कि जो इन दोनों को जान लेता है उसका मोह विनष्ट हो जाता है। उनके इस कथन का तात्पर्य यह है कि जब आत्मा को अपने शुद्धस्वरूप का बोध हो जाता है तब मोह समाप्त होने पर आत्मा परमात्मापद को प्राप्त हो जाती है। किन्तु यह ज्ञातव्य है कि आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप का बोध अपनी ज्ञानादि शक्तियों के माध्यम से ही होता हैं। जब तक जीवात्मा अपने ज्ञानमय शुद्धस्वरूप को नहीं
-पाहुडदोहा ।
-वही ।
-पाहुडदोहा ।
-वही ।
७४ 'देहादेवलि जो वसइ सत्तिहिं सहियउ देउ । ___ को तहिं जोइय सत्तिसिउ सिग्घु गवेसहि भेउ ।। ५४ ।।' ७५ 'जरइ ण मरइ ण संभवइ जो परि को वि अणंतु ।
तिहुवणसामिउ णाणमउ सिवदेउ णिभंतु ।। ५५ ।।' (क) 'वण्णविहूणउ णाणमउ जो भावइ सब्भाउ ।
संतु णिरंजणु सो जि सिउ तहिं किज्जइ अणुराउ ।। ३६ ।।' (ख) 'अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अवरू परायउ भाउ ।
सो छंडेविणु जीव तुहुं झायहि सुद्धसहाउ ।। ३८ ।।' (ग) 'बुज्झहु बुज्झहु जिणु भणइ को बुज्झइ हलि अण्णु।।
अप्पा देहहं णाणमउ छुडु बुज्झियउ विभिण्णु ।। ४१ ।।' (घ) तिहुवणि दीसइ देउ जिणु जिणवरू तिहुवणु एउ ।
जिणवरू दीसइ सयलु जगु को वि ण किज्जइ भेउ ।। ४० ।।' ७७ 'वंदहु वंदहु जिणु भणइ को वंदउ हलि एत्थु ।। _णियदेहहं णिवसंतयहं जइ जाणिउ परमत्थु ।। ४२ ।।' ७८ 'सिव विणु सत्ति ण वावरइ सिउ पुणु सत्तिविहीणु ।
दोहिं वि जाणइ सयलु जगु बुज्झइ मोहविलीणु ।। ५६ ।।'
-वही ।
-वही ।
-वही ।
-वही ।
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