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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
शुद्धात्मा को ही उन्होंने परमात्मा कहा है। आत्मा ज्ञान स्वरूप है। ज्ञान आत्मा का स्वभाव लक्षण है। जहाँ आत्मा है वहाँ नियम से ज्ञान है। आत्मा अपने ज्ञान स्वभाव से भिन्न नहीं है और आत्मा का यह ज्ञान स्वभाव ही मोक्ष का कारण है।
मुनि रामसिंह आगे कहते हैं कि जहाँ कर्ममल से रहित एवं केवलज्ञानमय परमात्मा निवास करते हैं, वह आत्मस्थान अनादि है। वहाँ उनके हृदय अर्थात् ज्ञानमय स्वभाव में यह समस्त विश्व प्रतिबिम्बित हो रहा है। उनके उस ज्ञान से परे कुछ भी नहीं है अर्थात् वे सर्वज्ञ परमात्मा हैं। ____ मुनि रामसिंह अहोभावपूर्वक उस परमात्मा का बहुमान करते हुए कहते हैं कि साढ़े तीन हाथ का यह जो देहरूपी देवालय है, उसके भीतर ही निरंजन प्रभु बसता है। ये निर्मल तथा अखण्डित ज्ञान का पिण्ड वीतराग हैं तथा इन्द्रियों से अगोचर हैं, फिर भी ज्ञानगोचर हैं। वे जन्म-मरण तथा भूख-प्यास आदि की बाधाओं से रहित और निर्बाध हैं। वे लिखते हैं कि बिना नाद के जो अक्षर उत्पन्न होता है अर्थात् विकल्परूपी कोलाहल से रहित निर्विकल्प चित्त में जिस शुद्ध आत्मस्वरूप का प्रकटन होता है। वह ज्ञानस्वरूप आत्मा ही परमात्मा है। आत्मा जब अपने आत्मस्वभाव में स्थित हो जाती है, तब उसे कर्मरूपी लेप नहीं लगता अर्थात् वह कर्मों से निर्लिप्त होती है और जो भी महादोष हैं उन सबका
-पाहुडदोहा ।
-वही ।
८४ 'अण्णु णिरंजणु देउ णवि अप्पा दंसणणाणु । ___अप्पा सच्चउ मोक्खपहु एहउ मूढ वियाणु ।। ८० ॥' ८५ 'केवल मलपरिवज्जियउ जहिं सो ठाइ अणाइ ।
तस उरि सवु जगु संचरइ परइ ण कोइ वि जाइ ।। ६० ॥' ८६ 'अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वि अम्ह दुम्मेहा ।
तं णवर सिक्खियव्वं जं जरमरणक्खयं कुणहि ।। ६६ ।।' ८७ (क) 'रायवयल्लहिं छहरसहिं पंचहिं रूवहिं चित्तु।
जासु ण रंजिउ भुवणयलि सो जोइय करि मित्तु ।। १३३ ।।' (ख) 'अणहउ अक्खरू जं उप्पज्जइ ।
अणु वि किं वि अण्णाण ण किज्जइ ।। आयइं चित्तिं लिहि मणु धारिवि । सोउ णिचिंतिउ पाउ पसारिवि ।। १४५ ।।'
-वही।
-वही।
-वही ।
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