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परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
छेदन हो जाता है। मुनि रामसिंह के इस कथन का तात्पर्य यह है कि स्व-स्वभाव में स्थित उस परमात्मा को ( कषाययुक्त) कर्म का बन्ध नहीं होता।" जो पुरातन कर्मों का क्षय करके और अभिनव कर्मों का प्रवेश नहीं होने देता है तथा सदैव ही अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का ध्यान करता है वही जिन या परमात्मा है । जिसने श्वास को जीत लिया है और जो निश्चल नेत्रवाला तथा जो आत्मा के इन्द्रिय व्यापार से मुक्त है, वही योगी ( परमात्मा) है इसमें कोई सन्देह नहीं ।" रागद्वेष आदि भावों के नष्ट होने तथा मन का व्यापार समाप्त हो जाने पर यह आत्मा परमात्मस्वरूप में स्थित हो जाती है और यही निर्वाण है ।
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५.२.६ आचार्य शुभचन्द्र के अनुसार परमात्मा
का स्वरूप
आचार्य शुभचन्द्र ने परमात्मा के स्वरूप का चित्रण करने से
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दुक्खु ण देक्खहि कहिं मि वढ अजरामरु पउ होइ ।। १६८ ।। ' (क) 'विसयकसाय चएवि वढ अप्पहं मणु वि धरेहि ।
चूरिवि चउगइ णित्तुलउ परमप्पउ पावेहि ।। १६६ ।।' (ख) 'इंदियपसरू णिवारि वढ मण जावहि परमत्थु ।
अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अवरू विडावइ सत्यु ।। २०० ।।' ( ग ) 'विसया चिंति म जीव तुहु विसय ण भल्ला होंति ।
सेवंताहं वि महुर वढ पच्छाई दुक्ख दिति ।। २०१ ।।' (घ) 'विसयकसायहं रंजियउ अप्पहिं चित्तु ण देइ ।
बंधिवि दुक्कियकम्मडा चिरू संसारू, भमेइ ॥। २०२ ।।' (च) 'इंदियविसय चएवि वढ करि मोहहं परिचाउ ।
अणुदिणुझावहि परमपउ तो एहउ ववसाउ ।। २०३ ।।' 'णिज्जियसासो णिप्फंदलोयणो मुक्कसयलवावारो । एयाई अवत्थ गओ सो जोयउ णत्थि संदेहो । २०४ ।। ' ६२ 'तुट्टे मणवावारे भग्गे तह रायरोससब्भावे । परमप्पयम्मि अप्पे परिट्ठिए होइ निव्वाणं ॥ २०५ ।।
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'तिहुवणि दीसइ देउ जिणु जिणवरू, तिहुवणु सउ । जिणवरू दीसइ सयलु जगु को वि ण किज्जइ एउ ।। ४० ।। ' (क) 'देखताहं वि मूढ वढ रमियई सुक्खु ण होइ ।
अम्मिए मुत्त छिदु लहु तो वि ण विणडइ कोइ ।। १६७ ।। ' (ख) 'जिणवरू झायहि जीव तुहु विसयकसायहं खोइ ।
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-वही ।
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- पाहुडदोहा ।
-वही ।
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