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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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३. परिहारविशद्धिचारित्र : परिहार अर्थात अलग होना - गण या
संघ से। एक विशिष्ट प्रकार के द्वारा आत्मा को विशेष शुद्ध करने की प्रक्रिया (साधना) को परिहारविशुद्धिचारित्र कहते हैं। इस परिहारविशुद्धिचारित्र में श्रमणसंघीय जीवन का परिहार
करके उत्कृष्ट श्रमणों के साथ रहकर तप साधना करता है। ४. सूक्ष्मसम्परायचारित्र : सूक्ष्म + सम्पराय = सूक्ष्म अर्थात्
कषायों का सूक्ष्मीकरण और सम्पराय अर्थात् कषाय कहा है। इस चारित्र में कषायों का सूक्ष्मीकरण होता है। जिस चारित्र में मात्र सूक्ष्मलोभ और संज्वलन कषाय रह जाते हैं - शेष सभी कषाय क्षीण हो जाते हैं, वह सूक्ष्मसम्परायचारित्र है।" यह
चारित्र दशम गुणस्थानवर्ती श्रमण का होता है। ५. यथाख्यातचारित्र : यह चारित्र की अन्तिम एवं उच्च अवस्था
है। यथाख्यात अर्थात् जिनेश्वर प्रभु द्वारा निरूपित अख्यात के अनुसार विशुद्ध चारित्र का पालन। यही यथाख्यातचारित्र है। इसमें कषाय उपशान्त या क्षीण होते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार इसमें वेदनीय आदि चारों घातिकर्मों का भी क्षय हो जाता है। तत्पश्चात् आत्मा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त अवस्था को प्राप्त करती है।
७. षड्आ वश्यक
जैनदर्शन में आवश्यक को साधना का अंग माना गया है। जैन दृष्टिकोण से जीवन में दोषों की शुद्धि एवं सद्गुणों की अभिवृद्धि हेतु इनकी अपरिहार्य अनिवार्यता है। आवश्यक आत्मविशुद्धि के लिए नित्य करने योग्य धार्मिक अनुष्ठान है। अनुयोगद्वार में कहा गया है कि आवश्यक की साधना श्रमण और श्रावकों के लिए आवश्यक है। दिन और रात्रि के ___अन्त में अवश्य करने योग्य साधना को आवश्यक कहा जाता है।२२ वे निम्न हैं :
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उत्तराध्ययनसूत्र टीकापत्र ५६८ (शान्त्याचार्य) ।
उत्तराध्ययनसूत्र २६/६२ । २०३ आवश्यकनियुक्ति टीका (उद्धृत उत्तराध्ययनसूत्र पृ. ४३६) ।
-मधुकरमुनि ।
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