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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
१७.तृणस्पर्शपरिषह; १८.मलपरिषह; १६.सत्कार-पुरस्कार परिषह; २०.प्रज्ञापरिषह; २१.अज्ञानपरिषह और २२. अदर्शनपरिषह।
इन २२ परिषहों को सहन करना मुनि का कर्तव्य है। इस प्रकार मुनि सभी पाप प्रवृत्तियों से पूर्णतः विरक्त रहता है और अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव में स्थित रहता है।
६. पाँच चारित्र
उत्तराध्ययनसूत्र में चारित्र के पाँच प्रकार निम्न रूप से उपलब्ध होते हैं : १. सामायिकचारित्र;
२. छेदोपस्थापनीयचारित्र; ३. परिहारविशुद्धिचारित्र; ४. सूक्ष्मसम्परायचारित्र; और
५. यथाख्यातचारित्र।०७। तत्त्वार्थसूत्र में भी ये ही चारित्र पाँच के प्रकार उपलब्ध होते हैं २०८ १. सामायिकचारित्र : उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में राग-द्वेष से
रहित चित्त की अवस्था एवं सभी सावद्य/पापमय व्यापारों का अभाव हो, ऐसा आचरण सामायिकचारित्र माना गया है।०६ तत्त्वार्थसूत्र का विवेचन करते हुए पण्डित सुखलालजी ने समभाव में स्थित प्रवृत्तियों को सामायिकचारित्र कहा है। इसके निम्न भेद हैं :
१. इत्वरकालिक; और २. यावत्कालिक। २. छेदोपस्थापनीयचारित्र : उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार
शान्त्याचार्य के अनुसार से जिस चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद करके महाव्रत प्रदान किये जाते हैं, उसे छेदोस्थापनीयचारित्र कहा जाता है। इसके निम्न भेद हैं :
१. निरतिचार छेदोस्थापनीयचारित्र; और २. सातिचार छेदोस्थापनीयचारित्र।२१०
२०७ उत्तराध्ययनसूत्र २८/३२ एवं ३३ । २०८ तत्त्वार्थसूत्र ६/१८ । २०६
(क) उत्तराध्ययनसूत्र टीकापत्र २८१७ (शान्त्याचार्य);
(ख) वही २८२२ (कमलसंयम उपाध्याय) । २१० तत्त्वार्थसूत्र पृ. ३५२ (पण्डित सुखलालजी) ।
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