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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
५.२ जैनाचार्यों की दृष्टि में परमात्मा का स्वरूप
एवं भेद जैनदर्शन में चार घाती और चार अघाती कर्मों का नाश करके, कर्ममल से रहित एवं राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने वाले सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, चैतन्यव्यापी आत्मा को परमात्मा कहा गया है। परमात्मा के दो भेद किये गये हैं : अर्हत् और सिद्ध। अर्हत् परमात्मा सशरीरी हैं और सिद्ध परमात्मा निरंजन, निराकार हैं।
कुन्दकुन्दाचार्य और स्वामी कार्तिकेय ने समस्त कर्मों से रहित शुद्धात्मा को परमात्मा कहा है। समाधितन्त्र और परमात्मप्रकाश आदि में भी परमात्मा के स्वरूप की चर्चा है। शुभचन्द्राचार्य ने कहा भी है कि (१) कर्मावरण रहित; (२) शरीर विहीन; (३) रागादि विकारों से रहित, निष्पन्न कृत्यकृत्य, अविनाशी सुखस्वरूप तथा निर्विकल्प शुद्ध आत्मा को परमात्मा कहा गया है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्वामी कार्तिकेय ने परमात्मा के दो भेद स्वीकार किये हैं: अर्हत् ओर सिद्ध। नयचक्र में भी इसी प्रकार से दो भेद किये गये हैं :
(१) सकल परमात्मा; और (२) विकल परमात्मा । बृहद्नयचक्र° एवं नियमसार” की तात्पर्यवृत्ति में भी परमात्मा के दो भेद किये गये है :
(१) कारण परमात्मा; और (२) कार्य परमात्मा । अर्हत् परमात्मा ही कारण परमात्मा हैं तथा सिद्ध परमेष्ठि कार्य परमात्मा हैं। इस प्रकार विभिन्न जैनाचार्यों ने अपनी-अपनी दृष्टि से परमात्मा के स्वरूप एवं प्रकारों की चर्चा की है। आगे हम क्रमशः इस पर विचार करेंगे।
मोक्षपाहुड गा. ५, ६ एवं १२ ।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. १६२ । १० नयचक्र गा. ३४०। " नियमसार तात्पर्यवृति गा. ६ की वृत्ति ।
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