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परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
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शरीरादि से भिन्न ही है। जड़ कर्मादि आत्मा से भिन्न हैं। यह आत्मा अनादि काल से परद्रव्यों में प्रीति करके इस संसार में परिभ्रमण कर रही है।६३३
(ख) योगसार के अनुसार परमात्मा का स्वरूप .. परमात्मा के स्वरूप का निर्वचन करते हुए योगीन्दुदेव योगसार में लिखते हैं कि जो आत्मा है वही परमात्मा है और जो परमात्मा है वही आत्मा है। इस प्रकार योगीन्दुदेव सर्वप्रथम आत्मा और परमात्मा में तादात्म्य स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में आत्मा
और परमात्मा में मुख्य अन्तर कर्मों से युक्त और कर्मों से रहित होने में है।६५ इसे वे एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करते हैं कि जैसे कमलिनी का पत्र कभी भी जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार परमात्मा आत्मस्वभाव में लीन रहते हैं। वे कर्मों से लिप्त नहीं हैं। उनकी दष्टि में आत्मा और परमात्मा में मुख्य अन्तर शक्ति और अभिव्यक्ति को लेकर है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार वटवृक्ष में बीज होते हैं उसी प्रकार बीज में भी वटवृक्ष रहा हुआ है। अतः आत्मा और परमात्मा में अनन्त-चतुष्टय की अभिव्यक्ति का ही अन्तर है। इसलिये वे कहते हैं कि जो परमात्मा है वह मैं हूँ और जो मैं हूँ वही परमात्मा है। इसे एक और अन्य अपेक्षा से स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि जो क्रोधादि चार कषायों और भय, मैथुन आदि चार संज्ञाओं से रहित हैं तथा अनन्तदर्शन,
-वही ।
-वही ।
६३ (क) 'जो परमत्थे णिक्कलु वि कम्म-विभिण्णिउ जो जि ।
मूढा सयलु भणंति फुडुमणि परमप्पउ सो जि ।। ३७ ।।' (ब) 'कम्म-णिबद्ध वि जोइया देहि वसंतु वि जो जि ।
होइ ण सयलु कया वि फुडु मुणि परमप्पउ सो जि ।। ३६ ।।' (क) 'जं वडमज्झहँ बीउ फुडु बीयहं वडु वि हु जाणु ।
तं देहहं देउ वि मुणहि जो तइलोय-पहाणु ।। ७४ ।।' (ख) 'जो जिण सो हउँ सो जि हउँ एहउ भाउ णिभंतु ।
मोक्खहँ कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण भंतु ।। ७५ ।।' (स) 'जह सलिलेण ण लिप्पियइकमलणि पत्त कया वि।
तह कम्मेहिं ण लिप्पियइ जइ रइ अप्प- सहावि ।। ६२ ।।' ६५ (क) 'बे छंडिवि बे-गुण-सहिउ जो अप्पाणि वसेइ ।
जिणु सामिउ एमइ भणइ लहु णिव्वाणु लहेइ ।। ७७ ।।'
-योगसार ।
-वही ।
-वही ।
-वही ।
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