Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 349
________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा सर्वोत्तम सुख (आनन्द) को प्राप्त अशरीरी सिद्ध परमात्मा हैं ।" इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी कार्तिकेय सर्वप्रथम परमात्मा के दो भेद करते हैं३२ : १. अर्हत् परमात्मा और २. सिद्ध परमात्मा । उनके अनुसार अर्हत् और सिद्ध में मुख्य अन्तर शरीर की उपस्थिति को लेकर है । अर्हत् परमात्मा शरीर से युक्त होते हैं और सिद्ध परमात्मा अशरीरी होते हैं । अर्हत् और सिद्ध के इस अन्तर को स्पष्ट करते हुए पुनः वे लिखते हैं कि जिन्होंने समस्त कर्मों का नाश करके अपने स्वभाव को प्रकट कर लिया है, वे सिद्ध परमात्मा हैं; किन्तु कर्मों के औदयिक आदि भाव को समाप्त करके अर्थात् घातीकर्मों के नाश से अनन्तचतुष्क रूप आत्मस्वरूप को प्रकट करने वाले अर्हत् परमात्मा कहे जाते हैं। इस प्रकार यहाँ स्वामी कार्तिकेय ने अर्हत् और सिद्ध का अन्तर कर्मों के क्षय के आधार पर भी किया है। जिसके ज्ञानावरणयादि चार घातीकर्म क्षय हो गये हैं और उसके परिणामस्वरूप अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य ऐसे अनन्तचतुष्टय का प्रकटन हुआ है उन्हें अर्हत् कहा जाता है और जिसके चारघाती और चार अघातीकर्म क्षीण हो गये हैं, वे सिद्ध परमात्मा कहे जाते हैं। आगे उन्होंने शुक्लध्यान के दो चरणों की चर्चा करते हुए अर्हत् और सिद्ध के अन्तर को स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं कि मोह का सम्पूर्ण रूप से विलय होने पर क्षीणकषाय नामक गुणस्थान के अन्तिमकाल में स्व-स्वरूप में लीन होते हुए शुक्लध्यान के द्वितीय चरण के अन्त में जो केवलज्ञान स्वभाव में प्रकट होता है वह अर्हत् या सयोगी जिन की अवस्था है । यहाँ आचार्य कार्तिकेय २६८ ३१ 'स सरीरा अरहंता, केवलणाणेण मुणियसयलत्या । पाणसरीरा सिद्धा, सव्युत्तम सुक्खसंपत्ता ।। १६८ ।। ' ३२ 'जीवा हवंति तिविहिा, बहिरप्पा तह य अन्तरप्पा य । परमप्पा वि यदुविहा, अरहंता तह य सिद्धा य ।। १६२ ।। ' (क) 'णिस्सेसकम्मणासे, अप्पसहावेण जा समुप्पत्ती । कम्मभावख वि य, सा वि य पत्ती परा होदि ।। १६६ ।' (ख) 'उत्तमगुणाण धामं, सव्वदव्वाण उत्तमं दव्वं । तच्चाण परमतच्चं, जीवं जाणेह णिच्छयदो । २०४ ।। ' ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only - वही । वही । - कार्तिकेयानुप्रेक्षा । -वही । www.jainelibrary.org

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