________________
परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
२६७
पुनः मोह विस्मयादि दोष संसारियों में ही होते हैं और वे ही संसार के कारणभूत हैं। आगे पुनः आचार्य कुन्दकुन्ददेव लिखते हैं कि सिद्धावस्था में कर्म और नोकर्म (अर्थात् शरीर) नहीं है। चिन्ता भी नहीं है। आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यान भी नहीं है। इस प्रकार सिद्धावस्था के अभावात्मक स्वरूप का विवेचन हुआ है। आगे सिद्ध परमात्मा के स्वाभाविक गुणों या विधेयात्मक गुणों का कथन करते हुए वे कहते हैं कि सिद्ध भगवान अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसौख्य और अनन्तवीर्य इन अनन्त-चतुष्टयों से युक्त हैं। साथ ही उनके अमूर्त्तत्व, अस्तित्व और सप्रदेशत्व, अगुरुलघुत्व आदि स्वाभाविकगुण होते है। आगे वे बताते हैं कि जहाँ तक धर्मास्तिकाय है, वहाँ तक जीव और पुद्गल गमन करते हैं। धर्मास्तिकाय के अभाव में आत्मा लोकान्त से आगे नहीं जा सकती है। अतः सिद्ध परमात्मा स्वरूप में निमग्न होकर लोकाग्र पर स्थित हैं।२६
५.२.२ स्वामी कार्तिकेय के अनुसार परमात्मा का
स्वरूप : स्वामी कार्तिकेय परमात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जो केवलज्ञान के द्वारा सकल पदार्थों को जानते हैं, वे शरीर युक्त अर्हत् परमात्मा कहे जाते हैं।३० किन्तु जिन्होंने शरीर का भी परित्याग कर दिया है; ज्ञान ही जिनका शरीर है; ऐसे
-वही।
-वही ।
२२७ ‘णवि कम्मं णोकम् णवि चिन्ता णेव अट्टरुद्दाणि । __णवि धम्मसुक्कझाणे तत्थेव य होइ णिव्वाणं ।। १८१ ।।' २८ 'विज्जदि केवलणाणं केवलसोक्खं च केवलं विरियं । __केवल दिट्ठी अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत्तं ।। १८२ ।।' २६ 'जीवाण पुग्गलाणं गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी।
धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छन्ति ।। १८४ ।।' ३० (क) 'जं सव्वं पि पयासदि दव्वपज्जायसंजुदं लोयं ।
तह य अलोयं सव्वं, तं गाणं सवपच्चक्खं ।। २५४ ।।' (ख) 'णाणं ण जादि णेयं णेय पि ण जादि णाण देसम्मि ।
णियणियदे सठियाणं, ववहारो णाणणेयाणं ।। २५६ ।।'
-वही ।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ।
-वही ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org