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और प्रकार
शरीरधारी होते हैं और उनमें मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियाँ होती हैं । यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि सयोगी केवली में जो वाचिक और मानसिक प्रवृत्तियाँ होती हैं वे इच्छा या संकल्पजन्य नहीं होतीं; किन्तु विवेकजन्य होती हैं । लोकमंगल के लिये तीर्थंकर में उपदेशादि प्रवृत्ति देखी जाती है । किन्तु यह उनकी सहज प्रवृत्ति है । यही कारण है कि दिगम्बर परम्परा यह मानती है कि भगवान की वाणी खिरती है । इसी प्रकार सयोगी केवली में कोई इच्छा या संकल्प - विकल्प नहीं होते। उनमें संकल्प-विकल्प रूप मन का अभाव होता है, किन्तु विवेकरूप मन का सद्भाव होता है । जब तक अर्हत् परमात्मा में उपरोक्त कायिक, वाचिक और मानसिक योग का प्रवर्तन होता है, तब तक वे सयोगी केवली कहे जाते हैं । किन्तु जब आयुष्य कर्म अत्यल्प रह जाता है तब वे अपनी कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्तियों का निरोध करते हैं और तब वे अयोगी केवली अवस्था को प्राप्त होते हैं। इसके निरोध की प्रक्रिया यह है कि स्थूल काययोग का निरोध किया जाता है इसके पश्चात् स्थूल वचनयोग का निरोध होता है। स्थूल वचनयोग के निरोध के पश्चात् स्थूल मनोयोग का निरोध होता है फिर सूक्ष्म मनोयोग का निरोध होता है । सूक्ष्म मनोयोग के निरोध के पश्चात् सूक्ष्म काययोग का निरोध होता है। सूक्ष्म काययोग के निरोध के पश्चात् अर्हत् परमात्मा की आत्मा इस देह का त्याग कर सिद्धावस्था को प्राप्त कर लेती है और लोकाग्र पर विराजित हो जाती है।
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परमात्मा का स्वरूप लक्षण,
सिद्ध परमात्मा के कर्मावरण पूरी तरह से समाप्त हो जाते हैं । वे देह को त्यागकर देहातीत हो जाते हैं । उनकी आत्मा संसार की जन्म मरण की परम्परा से मुक्त हो जाती है। वे अशरीरी और अमूर्त होते हैं तथा अनन्त चतुष्टय रूप स्वरूप में निमग्न हो जाते हैं ।
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यहाँ हमने अर्हत् और सिद्ध परमात्मा के सामान्य स्वरूप की चर्चा की है। तीर्थंकर और सिद्धों के स्वरूप पर हम आगे विचार करेंगे। किन्तु इसके पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि विभिन्न जैनाचार्यों ने कालक्रम में अर्हत् और सिद्धों के स्वरूप की चर्चा किस तरह की है ।
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