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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
अनुव्रतों और तीन गुणवतों का परिपालन तो करता है किन्तु सामायिक आदि शिक्षाव्रतों का सम्यक् रूप से पालन नहीं करता। यह व्रत-प्रतिमा श्रावक की दूसरी प्रतिमा है।६८
३. सामायिक-प्रतिमा
यह श्रावक की तीसरी भूमिका है। इस सामायिक प्रतिमा में साधक समत्व की साधना करता है। श्रावक के द्वारा समत्व की साधना के लिए जो प्रयत्न किया जाता है वह सामायिक कहलाती है। इस सामायिक की साधना को जीवन-व्यवहार में उतारने के लिए उसे सतत् प्रयास करना आवश्यक होता है। इस सामायिक प्रतिमा में साधक को तीनों समय - प्रातः, मध्याण्ह एवं संध्या में मन, वचन और काया से निर्दोषपूर्ण समत्व की साधना करनी चाहिये।६६ जो श्रावक दर्शन-प्रतिमा और व्रत-प्रतिमा का पालन करते हुए गृहस्थ जीवन के क्रिया-कलापों में से प्रतिदिन नियम से समत्व की साधना में लगा रहता है, वह सामायिक-प्रतिमा का धारक होता है।
४. पौषध-प्रतिमा
पर्व तिथि के दिनों में साधक गुरू के सांनिध्य में धर्मध्यान में रह कर, धर्माराधना में संलग्न होकर निरतिचारपूर्वक दिन-रात का पौषध करता है, उसे पौषध-प्रतिमा कहते हैं। यह पौषधोपवास प्रतिमा निवृत्ति की दिशा की ओर अग्रसर होने वाला एक चरण है। इसे एक दिन का श्रमणत्व भी कहा जा सकता है। यह गृहस्थ (श्रावक) की चौथी प्रतिमा है, जिसमें प्रवृत्तिमय जीवन जीते हुए भी कुछ दिनों में निवृत्ति का आनन्द लिया जा सकता है।
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(क) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३०१७ । (ख) 'पंचेव अणुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति पुण तिण्णि ।
सिक्खावदाणि चत्तारि जाण विदियम्मि ठाणम्मि ।। २०७ ।।' उपासकदषांगसूत्र टीका पत्र १५ । वसुनन्दिश्रावकाचार २७६ । वही २८० ।
वसुनन्दिश्रावकाचार ।
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