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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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४. ब्रह्मचर्य महाव्रत
श्रमण का यह चतुर्थ महाव्रत है। इस ब्रह्मचर्य महाव्रत की विस्तृत चर्चा जैनागमों में उपलब्ध होती है। श्रमणजीवन की साधना में यह महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि श्रमण को मन, वचन और काया एवं कृत-कारित और अनुमोदित रूप से नवकोटि सहित सर्व प्रकार के मैथुनसेवन का त्याग करना चाहिये।६० प्रश्नव्याकरणसूत्र में बताया गया है कि ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व एवं विनय का मूल है - यम नियम रूप प्रधान गुणों से युक्त कहलाता है। ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने से देव, दानव और यक्षादि प्रसन्न होकर नमस्कार करते हैं। जैनदर्शन में ब्रह्मचर्यव्रत की विशिष्ट महत्ता है। ब्रह्मचर्य का भंग होने पर सभी व्रत-नियम, शील, तप गुणादि चूर चूर हो जाते हैं। अब्रह्मचर्य के कारण आसक्ति और मोहादि रहते हैं, जिससे आत्मा पतन के गर्त में गिर जाती है। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा हेतु श्रमण को अपने बाह्य जीवन में जो संयोग प्राप्त होते हैं, उनके प्रति हमेंशा सजग रहना आवश्यक है। क्योंकि साधक के अन्तर में दबी हुई वासना कभी भी बाह्य निमित्त को पाकर प्रकट हो सकती है। ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ निम्न हैं: १. स्त्रीकथा त्याग;
२. मनोहर क्रियावलोकन त्याग: ३. पूर्व रति-विलास स्मरण त्याग; ४. प्रणीत रस-भोजन त्याग; और ५. शयनासन त्याग।"
इस प्रकार मन, वचन एवं काया से मैथुन नहीं करना ही ब्रह्मचर्य महाव्रत है। श्रमण के लिए इसका सर्वथा पालन आवश्यक
है।
५. सर्वपरिग्रहविरमण (अपरिग्रह) महाव्रत
श्रमण का पाँचवां अपरिग्रह महाव्रत है। श्रमण अन्तरंग और
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उत्तराध्ययनसूत्र २५/२५ ।। (क) आचारांगसूत्र द्वितीय श्रुतस्कण्ध २/१५/१७६ । (ख) 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ३३७ ।
-डॉ. सागरमल जैन ।
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