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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
बाह्य परिग्रह से विरत होता है । परिग्रह की आसक्ति के कारण मन की कलुषिता, अशान्ति, भय और तृष्णा बढ़ती है जिससे मन की स्थिरता नहीं रहती है । श्रमण परिग्रह या मूर्च्छा ( आसक्ति) के कारण अहिंसादि महाव्रतों का पूर्णतः परिपालन नहीं कर पाता है । इस महाव्रत की पाँच भावनाएँ निम्न हैं :
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१. श्रोत्रेन्द्रिय के विषयों में अनासक्ति; २. चक्षुरीन्द्रिय विषयों में अनासक्ति; ३. घ्राणेन्द्रिय विषयों में अनासक्ति;
४. रसनेन्द्रिय विषयों में अनासक्ति; और ५. स्पर्शेन्द्रिय विषयों में अनासक्ति ।
ये पाँचों भावनाएँ पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति का निषेध रूप हैं। दशवैकालिकसूत्र में बताया है कि परिग्रह का अर्थ बाह्य पदार्थों का संग्रह नहीं करना, मात्र इतना ही नहीं है; अपितु आन्तरिक मूर्च्छाभाव अथवा आसक्ति भी है । ६२
जैनदर्शन में परिग्रह निम्न दो प्रकार का स्वीकार किया गया है: १. बाह्य परिग्रह और २. आभ्यन्तरिक परिग्रह |
श्रमण को सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग करना चाहिये ।९३ जैन श्रमण के लिए वे ही वस्तुएँ रखने का विधान है, जिनसे संयम यात्रा का निर्वाह हो सके । मात्र यही नहीं, उसे उन उपकरणों पर भी आसक्ति नहीं होनी चाहिये ।
६. रात्रि - भोजन विरमण व्रत
श्रमण छठे व्रत के रूप में रात्रि - भोजन का त्याग करता है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार रात्रि - भोजन का निषेध ६ठे महाव्रत के रूप में स्वीकृत किया गया है । दशवैकालिकसूत्र में भी आचार्य शय्यंभवसूरि ने रात्रि - भोजन को ६ठे महाव्रत के रूप में बताया है । ६४ मुनि सम्पूर्ण जीवन पर्यन्त रात्रि - भोजन का परित्याग करता है । रात्रि - भोजन का निषेध अहिंसा महाव्रत एवं संयम जीवन की
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१६२ दशवैकालिकसूत्र ६ / २१ ।
१९३ बहकल्प १ / ८३१ (देखिये बोलसंग्रह भाग ५ पृ. ३३) ।
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दशवैकालिकसूत्र ६ / २१ ।
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