Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
५. नियम - प्रतिमा
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गृहस्थ के विकास की पाँचवीं भूमिका है। इस प्रतिमा को कायोत्सर्ग प्रतिमा एवं दिवा-मैथुनविरत - प्रतिमा भी कहा जाता है । " इस प्रतिमा का दोष-रहित पालन करने के पाँच नियम हैं : १. स्नान नहीं करना;
२. रात्रि - भोजन नहीं करना;
३. धोती में एक लांग नहीं लगाना;
४. दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करना और रात्रि में मैथुन की मर्यादा निश्चित करना; और
५. अष्टमी - चतुर्दशी को कायोत्सर्ग करना ।
६. ब्रह्मचर्य - प्रतिमा
यह गृहस्थ की छठी अवस्था है। इसमें श्रावक कामासक्ति, भोगासक्ति या देहासक्ति पर विजय प्राप्त कर आध्यात्मिक विकास की दिशा में अग्रसर होने के लिए मैथुन से सर्वथा विरत होकर ब्रह्मचर्य का पालन करता है एवं निवृत्तिमय जीवन की ओर गतिशील बनता है । यही ब्रह्मचर्य - प्रतिमा है । १७३
७. सचित्त आहारवर्जन-प्रतिमा
साधक पूर्व की समस्त प्रतिमाओं का दृढ़तापूर्वक पालन करता हुआ भोगासक्ति पर विजय प्राप्त करके सचित्त (सजीव) वस्तुओं के आहार का त्याग करता है । उष्ण या अचित्त जल का उपयोग करता है। गृहस्थ साधक स्वयं भी सचित्त पदार्थों को अचित्त कर ग्रहण कर सकता ।"
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वही २६६ ।
'पुव्वत्तणवविहाणं पि मेहुणं सव्वदा विवज्जंतो । इत्यिकहाइ णिवित्तो सत्तमगुण बंभचारी सो ॥। २६७ ।। 'जं वज्जिज्जइ हरियं तुयं, पत्त- पवाल- कंद-फल-बीयं । अप्पासुगं च सलिलं सचित्तणिव्वित्ति तं ठाणं ।। २६५ ।।'
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- वसुनन्दिश्रावकाचार ।
-वही ।
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