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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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२. समन शब्द के मूल में 'सम्' है, जिसका अर्थ है समत्वभाव।
जो व्यक्ति सभी प्राणियों को अपने समान समझता है और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रखता है, वह श्रमण
कहलाता है। ३. शमन शब्द का अर्थ है - अपनी वृत्तियों को शान्त रखना
अथवा मन और इन्द्रियों पर संयम रखना। अतः जो व्यक्ति
अपनी वृत्तियों को संयमित रखता है, वह श्रमण है।७७ वस्तुतः जैनपरम्परा में श्रमण शब्द का मूल तात्पर्य समत्वभाव की साधना ही है। भगवान महावीर ने केवल मण्डित व्यक्ति को श्रमण न कहकर समत्व की साधना करने वाले साधक को ही श्रमण कहा है। सूत्रकृतांगसूत्र में श्रमणजीवन की चर्चा उपलब्ध होती है - जो प्राणी सदैव हिंसा से रहित हो; सत्य वचन बोलता हो; मैथुन, परिग्रह तथा राग-द्वेष से रहित हो; इन्द्रियों का विजेता हो; और मोक्षमार्ग का पथिक हो, उसे ही सच्चा श्रमण कहा जाता है।६ दिगम्बर परम्परा के अनुसार मूलाचार में श्रमण के निम्न २८. गुण बताये गए हैं। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार २७ मूलगुण इस प्रकार माने गये हैं :१८०
१-५. पंचमहाव्रत; ६-१०. पाँचों इन्द्रियों का संयम;
११. आन्तरिक पवित्रता; १२. भिक्षु उपधि की पवित्रता; १३. क्षमा; १४. अनासक्ति; १५. मन की सत्यता; १६. वचन की सत्यता;
१७. काया की सत्यता; १८-२३. छः प्रकार के प्राणियों के प्रति संयम या उनकी
हिंसा न करना;
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१७७ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ३२६ ।।
-डॉ. सागरमल जैन । उत्तराध्ययनसूत्र २५/३२ ।
सूत्रकृतांगसूत्र १/१६/२ (उद्धृत श्रमणसूत्र पृ. ५४-५७) । १५०
बोल संग्रह भाग ६ पृ. २२८ ।
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