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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
८. आरम्भत्याग-प्रतिमा ___इस प्रतिमा में आरम्भ-त्याग की भूमिका है। इसमें साधक आरम्भ अर्थात् हिंसा का पूर्णतः त्याग कर देता है। वह अपने पारिवारिक, सामाजिक एवं व्यवसायिक कार्य अपने उत्तराधिकारी को सौंप देता है। स्वयं निवृत्त होकर अपना अधिकांश समय धर्म-साधना में लगाता है; किन्तु सम्पत्ति पर से अपने स्वामित्व के अधिकार को नहीं छोड़ता है।
६. परिग्रहविरत-प्रतिमा
इसे 'प्रेष्यारम्भवर्जन-प्रतिमा' भी कहते हैं। इसमें प्रवेश करने पर गृहस्थ (साधक) सेवक (प्रेष्य) आदि के द्वारा कार्य करवाने का भी त्याग कर देता है। साथ ही वह सम्पत्ति के स्वामित्व का अधिकार भी त्याग देता है, पर वह अपने उत्तराधिकारी को मार्गदर्शन दे सकता है। इस प्रतिमा में गृहस्थ (साधक) न तो स्वयं आरम्भ करता है और न करवाता है।
१०. उद्दिष्टभक्तवर्जन-प्रतिमा __इसमें गृहस्थ स्वयं के निमित्त से बने भोजन का भी त्याग कर देता है। वह सिर मुण्डन करवाता है, किन्तु शिखा रखता है। ऐसा साधक लौकिक कार्यों में भी रूचि नहीं रखता है और न ही उनकी अनुमोदना करता है। वह अनुमति-त्यागी अद्दिष्टभक्तवर्जनप्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है।
११. श्रमणभूत-प्रतिमा
इस अवस्था में गृहस्थ (साधक) श्रमण के सदृश बन जाता है। उसके समस्त अनुष्ठान श्रमण के समकक्ष होते हैं, जैसे केशलुंचन करवाना, श्रमण के सदृश संयमोपकरण रखना, भिक्षा द्वारा क्षुधा निवृत्ति करना आदि। श्रमण के सदृश जीवनचर्या का पालन करने पर भी उसमें उससे कुछ भिन्नता होती है। यदि उसकी शक्ति न हो
१७५ 'जं किंचि गिहारंभं बहु थोवं वा सया विवज्जेइ ।
आरम्भणियत्तमई सो अट्ठसु सावओ भणिओ ।। २६८ ।।'
-वही।
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