Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
मानना है कि समताभाव में ही सुख का उपाय है ।" यहाँ पर बनारसीदासजी अन्तरात्मा के स्वरूप का विवेचन करते हुए लिखते हैं कि जिसके हृदय मे मिथ्यात्वरूपी अन्धकार का नाश हो गया है और सम्यग्दर्शनरूपी सूर्य प्रकाशित हो चुका है; जिनकी मोह - निद्रा लुप्त हो गई है; जो संसार दशा से विरक्त हो गए हैं, स्वस्वरूप को जानने के लिए प्रयासरत हैं वे ही आत्माएँ अन्तरात्मा हैं ।" अन्तरात्मा सम्यग्दर्शनरूपी किरण से प्रकाशित हो मोक्षमार्ग की ओर गतिशील होती है और कर्मों का नाश करती हुई परमात्मस्वरूप को प्राप्त करने के लिए तत्पर रहती है । वह यह सोचती है कि जिस घर में दीपक जलाया जाता है, उसी घर में प्रकाश होता है । ठीक वैसे ही अन्तरात्मा विभाव दशा को त्यागकर आध्यात्मिक विकास करती हुई सम्यग्दर्शन के दीप को जलाकर आत्मपथ को प्रकाशित
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११६ 'हांसी मैं विषाद बसै विद्यामैं विवाद बसै, सुचिमैं गिलानि बसै प्रापतिमैं हानि बसै, रोग बसै भोगमैं संजोगमैं वियोग बसै, गुनमैं और जग रीति जेती गर्भित असाता सेती, साताकी सहेली है अकेली उदासीनता ।। ११।। '
कायामैं मरन गुरू वर्तनमैं हीनता । जैमैं हारि सुंदर दसामैं छबि छीनता ।। गरब बसै सेवा मांहि हीनता ।
- वही ।
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'जाकौ अथो अपूरब अनिवृति करनकौ, भयौ लाभ भई गुरूवचनकी बोहनी । जाकै अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ, अनादि मिथ्यात मिश्र समकित मोहनी ।। सातौं परकिति खपां किंवा उपसमी जाके, जगी उर मांहि समकित कला सोहनी । सोई मोख साधक कहायौ ताकै सरवंग, प्रगटी सकति गयन थानक अरोहनी || ४ ||' - वही ।
(क) 'ग्यान द्रिष्टि जिन्हके घट अंतर, जिन्हकै सहजरूप दिन दिन प्रति जै केवलि प्रनीत मारग मुख,
निरखै दरव सुगुन परजाइ । स्यादवाद साधन अधिकाइ || चितैं चरन राखें ठहराइ ।
ते प्रवीन करि खीन मोहमल, अविचल होहिं परमपद पाइ ।। ३५ ।।'
- समयसार नाटक (साध्य साधक द्वार ) | (ख) 'चाकसौं फिरत जाकौ संसार निकट आयौ, पायौ जिन सम्यक मिथ्यात नास करिकै । निरदुंद मरसा सूभूमि साधि लीनी जिन, कीनी मोखकारन अवस्था ध्यान धरिकै ।। सो ही सुद्ध अनुभौ अभ्यासी अविनासी भयौ, गयौ ताकौ परम भरम रोग गरिकै । मिथ्यामती अपनौ सरूप न पिछानै तार्तै, डोलै जगजालमैं अनंत काल भरिकै ||३६|| '
-वही ।
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