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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
५. तुच्छोषधिभक्षण - ऐसी औषधि भक्षण करना जो खाने
योग्य न हो। श्रावक के लिए निम्न १५ कर्मादान निषिद्ध हैं : (१) अंगारकर्म; (२) वनकर्म; (३) शकटकर्म; (४) भाटकर्म; (५) स्फोटकर्म; (६) दन्तवाणिज्य; (७) लाक्षावाणिज्य; (८) रसवाणिज्य; (E) केशवाणिज्य; (१०) विषवाणिज्य; (११) यंत्रपीड़नकर्म; (१२) निलाछनकर्म; (१३) दावाग्निदापन; (१४) सरद्रहतडागशोषणकर्म; और (१५) असतीजनपाषणकर्म।।
८. अनर्थदण्ड
अनर्थदण्ड शब्द का अर्थ - अनर्थ (निष्प्रयोजन) में दण्ड का भागी बनना। जब व्यक्ति स्वयं या परिवार के जीवन निर्वाह के लिए कुछ सार्थक और कुछ निरर्थक क्रियाएँ करता है, तो उनमें से सार्थक सावद्य क्रिया करना अर्थदण्ड है और निरर्थक पापपूर्ण प्रवृत्तियों का करना अनर्थदण्ड है।५८
इसके चार प्रकार निम्न हैं - (१) अपध्यान : योगशास्त्र५६ तथा सागारधर्मामृत'६० में आर्तध्यान
_ तथा रौद्रध्यानरूप अशुभ चिन्तन को अपध्यान कहा है। (२) प्रमादाचरण : श्रावक यदि प्रत्येक कार्य जागरूकता या सजगता
के अभाव में करता है, तो वह आचरण प्रमादाचरण कहा जाता है।६१ डॉ. सागरमल जैन ने आगम के अनुसार इसके पाँच भेद किये हैं : १.अहंकार; २.कषाय; ३.विषय चिन्तन;
४. निद्रा; और ५. विकथा।६२ (३) हिंसादान : हिंसा के साधन - शस्त्रादि क्रोधाविष्ट व्यक्ति का
१५८ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. २८६ ।
-डॉ. सागरमल जैन। १५६ योगशास्त्र ३/७५ । १६० सागारधर्मामृत ५/६ ।
तत्त्वार्थसूत्र ७/२१ की सर्वार्थसिद्धि की टीका । १६२ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. २६०।
-डॉ. सागरमल जैन ।
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