Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
वंदित्तुसूत्र४६ आदि में अदत्तादान के पाँच भेदों की चर्चा उपलब्ध है:
१. चोरी का माल खरीदना; २. चोर को सहायता देना; ३. राज्य के नियमों के विरूद्ध व्यापार आदि करना; ४. नाप-तौल में हेर-फेर करना; और
५. मिलावट करके बेचना। ४. ब्रह्मचर्य-अणुव्रत ___इसका दूसरा नाम 'स्वदारा सन्तोषव्रत' या 'स्वपति संतोषव्रत' भी मिलता है। यह श्रावक का चौथा अणुव्रत है। इस अणुव्रत का पालन करने वाला श्रावक स्वस्त्री के सम्बन्ध में भी मैथुन की मर्यादा निर्धारित करता है।५० श्रमण की तरह श्रावक पूर्णतः कामवासना से विरत तो नहीं होता, अपितु वह संयत होता है। इस अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं :
१. इत्वरपरिगृहीतागमन; २. अपरिगृहीतागमन; ३. अनंगक्रीड़ा; ४. परविवाहकरण; और ५. कामभोग-तीव्राभिलाषा।
५. अपरिग्रह-अणुव्रत
इसे 'परिग्रह परिमाणव्रत' भी कहते हैं। श्रावक श्रमण की तरह पूर्णतः निष्परिग्रही नहीं होता, क्योंकि गृहस्थ जीवन में अर्थ की आवश्यकता होती है। वंदित्तुसूत्र में परिग्रह परिमाणव्रत में जो मर्यादाएँ निर्धारित की गई हैं, उनके उल्लंघन को अतिचार कहा गया है। इसके पाँच अतिचार निम्न हैं :
१. धन-धान्यादि के परिमाण का अतिक्रमण करना; २. भूमि, मकान आदि के परिमाण का अतिक्रमण करना; ३. स्वर्ण-रजत, मणि-मुक्ता आदि के परिमाणका अतिक्रमण करना; ४. द्विपद, चतुष्पद के परिमाण का अतिक्रमण करना; और ५. गृहस्थ जीवन के लिए आवश्यक सामग्री की सीमा का
अतिक्रमण करना।
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वंदित्तुसूत्र १४ । आवश्यकसूत्र (परिषिष्ट पृ. २२) । वंदित्तुसूत्र १८ ।
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