________________
२५६
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
देशविरत सम्यग्दृष्टि को सामान्यतः व्रतधारी श्रावक कहा जाता है। वह पाँच अणुव्रतों, तीन गुणवतों और चार शिक्षाव्रतों - इस प्रकार श्रावक के बारह व्रतों का पालन करता है; जो निम्न हैं :
१. अहिंसा अणुव्रत; २. सत्य अणुव्रत; ३. अचौर्य अणुव्रत; ४. स्वपत्नी सन्तोष अणुव्रत; ५. परिग्रह परिमाण अणुव्रत; ६. दिग्परिपाण गुणवत; ७. उपभोग परिभोग परिमाण गुणवत; ८. अनर्थदण्ड विरमण गुणवत; ६. सामायिक शिक्षाव्रत; १०. देशावगासिक शिक्षाव्रत; ११. पौषधोपवास शिक्षाव्रत; और १२. अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत।
अग्रिम पृष्ठों में हम इनका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे।
१. अहिंसा-अणुव्रत
स्थानांगसूत्र में इस अणुव्रत को 'स्थूलप्राणातिपात विरमणव्रत' कहा है।४१ श्रावकधर्म को देशसंयत, देशविरत और देशचारित्र भी कहा जाता है। श्रावक (साधक) गृहस्थाश्रम में रहकर गृहस्थ के कर्तव्यों का पालन करता हुआ संकल्पपूर्वक त्रस जीवों की हिंसा से विरत होता है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार,४२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा,४३ अहिंसा-अणुव्रत,४४ आदि ग्रन्थों में संकल्पपूर्वक त्रसजीवों की हिंसा से विरति को अहिंसा अणुव्रत कहा गया है। ज्ञातव्य है कि श्रावक (गृहस्थ) जीवन में त्रस जीवों का पूर्णतः त्याग नहीं करता। कभी उसे देह, देश, समाज, परिवार एवं धर्म आदि की रक्षा हेतु
१४१
१४२
१४३
स्थानांगसूत्र ५/१-२ । रत्नकरण्डकश्रावकाचार ५३ । कार्तिकयानुप्रेक्षा ३०-३२ । वंदित्तुसूत्र ७५ ।
१४४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org