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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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(३) शास्त्रों का अध्ययन करना; (४) उन्हें स्मृति में रखना; (५) जिज्ञासा से प्रेरित होकर शास्त्र चर्चा करना; (६) शास्त्र विरूद्ध अर्थ नहीं करना; (७) वस्तु स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना;
(८) तत्त्वज्ञ बनना। १६. अजीर्ण होने पर भोजन नहीं करना; १७. नियत समय पर भोजन करना; १८. धर्म, अर्थ एवं काम का अवसरोचित सेवन करना; गृहस्थ
जीवन में अर्थ एवं काम पुरुषार्थ का सर्वथा त्याग नहीं हो सकता है। अतः उनका सेवन इस प्रकार करना चाहिये
जिससे धर्म पुरुषार्थ उपेक्षित न हो। १६. अतिथि, साधु आदि का सत्कार करना; २०. आग्रह से दूर रहना; २१. गुणानुरागी होना; २२. अयोग्य देश और काल में गमन नहीं करना; २३. स्व-सामर्थ्य के अनुसार कार्य करना; २४. सदाचारी पुरुषों को उचित सम्मान देना-उनकी सेवा करना; २५. अपने आश्रितों का पालन-पोषण करना; २६. दीर्घदर्शी होना; २७. विवेकशील होना अर्थात् अपने हित-अहित को समझना; २८. कृतज्ञ होना अर्थात् उपकारी के उपकार का विस्मरण नहीं
करना; २६. सदाचार एवं सेवा के द्वारा जनता का प्रेम-पात्र बनना; ३०. लज्जाशील होना; ३१. करूणाशील होना; ३२. सौम्य होना; ३३. यथाशक्ति परोपकार करना; ३४. काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्यादि आन्तरिक
शत्रुओं से बचने का प्रयत्न करना; ३५. इन्द्रियों को वश में रखना।
३. श्रावक के बारह व्रत
ये आचार भूमिका के हैं। इनका संक्षिप्त विवरण आगे प्रस्तुत करेंगे।
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