Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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आत्मा को कहते हैं, जिसकी जीवनदृष्टि सम्यक् होते हुए भी वह सम्पूर्ण पाप प्रवृत्तियों से विरत नहीं हो पाती है। किन्तु वह अविरत भी नहीं होती है क्योंकि वह आंशिक रूप से सम्यक् आचार का पालन करती है।
४.३.२ देशविरत श्रावक का स्वरूप
श्रावक शब्द का अर्थ - “जो 'श्र' से श्रद्धा; 'व' से विवेक तथा 'क' से क्रिया को ग्रहण करता है, उसे श्रावक कहा जाता है।" वह विशिष्ट गुणों से युक्त होने पर श्रावक कहलाने का अधिकारी होता है। श्रावक व्रतों का पालन करनेवाला श्रावक नैष्ठिक कहलाता है। सभी गृहस्थ श्रावक साधना की दृष्टि से समान नहीं होते हैं। उनमें श्रेणी भेद होता है। जैनाचार्यों ने गृहस्थ साधक के लिए आचार का एक सरलतम प्रारूप भी निर्धारित किया है। उसी अनुरूप गृहस्थ श्रावक द्वारा आचारों का परिपालन करना माना गया है, यद्यपि पूर्ववर्ती आगमों में इसका विवेचन उपलब्ध नहीं है। इसके सम्बन्ध में सभी जैनाचार्यों में मतैक्य नहीं है। वसुनन्दी श्रावकाचार में सप्त-व्यसनों के त्याग का विधान है। वर्तमान में वसुनन्दी श्रावकाचार के विधान को सामान्यतः स्वीकार किया जाता है।३७ श्रावक के आचार को चार भूमिकाओं में विभाजित किया जा सकता है : १. सप्त-व्यसन का त्याग; २. मार्गानुसारी के पैंतीस गुण; ३. श्रावक के बारह व्रत; और ४. श्रावक की ग्यारह प्रतिमा।
१. सप्तव्यसन का त्याग सप्तव्यसन निम्न हैं३८ -
१. जुआ; २. मांसाहार; ३. सुरापान (मदिरापान); ४. वेश्यागमन; ५. शिकार; ६. चौर्यकर्म; और ७. परस्त्रीगमन।
१३७'जैन बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. २६८ ।
-डॉ. सागरमल जैन । १३८ वसुनन्दी श्रावकाचार गा. ५६ ।
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