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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
है। अन्तरात्मा इस प्रकार चिन्तन करती हुई संसार से विरक्त होकर आत्म उपलब्धि के लिये शुद्ध आत्मतत्त्व का ध्यान करती है। यहाँ पर आनन्दघनजी ने संसार की असारता बताकर जीव को अन्तर्मुखी बनने की प्रेरणा दी है। यहाँ आनन्दघनजी बहिरात्मा को अन्तरात्मा बनने के लिए प्रेरित करते हुए कहते हैं कि पुद्गल की अनित्यता एवं शरीर की क्षण भंगुरता को जाने बिना सम्यग्दर्शन सम्भव नहीं है। जब शरीर आदि की अनित्यता की प्रतीति होती है, तब ही अन्तर्दृष्टि जाग्रत होती है और आत्म-अनात्म विवेकरूपी दीपक प्रज्वलित होता है। जिसमें ऐसी विवेक दृष्टि जाग्रत हो गई है, वही अन्तरात्मा है।
आनन्दघनजी ऋषभजिन स्तवन में अन्तरात्मा के लक्षण की अभिव्यक्ति करते हुए लिखते हैं : 'चित्त प्रसन्न रे पूजन फल का रे पुजा अखंडित एह, कपट रहित थई आतम अरपणा रे, आनन्दघन पद रेह।।"
अर्थात् कपट रहित होकर अपने शुद्ध स्वस्वरूप में निमग्न होना, यही परमात्मा की उपासना का प्रतिफल है। उसी व्यक्ति की पूजा या आराधना सार्थक है, जिसने अपनी अन्तरात्मा को परमात्मा के चरणों में अर्पित कर दिया हैं। ऐसा व्यक्ति ही चित्त की स्थिरता के द्वारा परमानन्द को प्राप्त करता है। यहाँ आनन्दघनजी यह बता रहे हैं कि जब अन्तरात्मा अपने शुद्ध परमात्मस्वरूप में निमग्न होती है, तभी उसकी आराधना सफल होती है और वह आत्मिक आनन्द को प्राप्त करती है : 'युंजन करणे हो अंतर तुझ पड़यो रे, गुण करणे करि भंग। ग्रन्थ उक्ते करि पंडित जन कह्यो रे अन्तर भंग सुअग।।१२ ___अर्थात् हे भगवन्! आपमें और मुझमें जो अन्तर है वह कर्मबन्ध के हेतुओं की उपस्थिति के कारण है। यदि कर्मबन्ध के हेतु रूप मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को समाप्त कर दिया जाय, तो आपमें और मुझमें कोई अन्तर नहीं रह पायेगा अर्थात् मैं परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लूंगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि एक दिन यह अन्तर अवश्य समाप्त हो जायेगा, मंगल ध्वनि
१२१ आनन्दघन चौवीसी - ऋषभजिन स्तवन १/६ । २२ वही - पद्मप्रभुजिन स्तवन ६/५ ।
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