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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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होगी और यह आत्मा परमात्मस्वरूप में निमग्न होकर परम आनन्द की अनुभूति करेगी।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आनन्दघनजी की दृष्टि में अन्तरात्मा की साधना की सार्थकता परमात्मपद की प्राप्ति में निहित है। उनके अनुसार जो परमात्मस्वरूप की उपलब्धि में सतत् रूप से साधनारत है, वही अन्तरात्मा है।
४.२.१२ देवचन्द्रजी के अनुसार आत्मा का स्वरूप
देवचन्द्रजी अन्तरात्मा का विवेचन करते हुए लिखते हैं कि अन्तरात्मा इन्द्रिय-विषयों के राग-द्वेष का त्याग करती है। वह संसार को हेय और आत्म-रमणता को ध्येय मानती है। अन्तरात्मा स्वयं को जानती है।२३ देवचन्द्रजी के अनुसार देह-वृद्धि से बन्धन होता है और आत्म-वृद्धि से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अन्तरात्मा निम्न रूप से चिन्तन करती है : 'निज अज्ञानेज कर्म जाय निज ज्ञान थी, कर्म तूटे तपथी, ते गले ध्यान थी। देह बुद्धि थी बन्ध, मोक्ष आतम गुणे।२४
अर्थात् जिस साधक ने आत्मज्ञान की ज्योति जाग्रत कर ली है, वह साधक परम आनन्द में झूलता है। प्रतिकूल परिस्थिति में वह समभाव से जीता है। अन्तरात्मा संशय का त्यागकर एकाग्रचित्त से आत्मचिन्तन करती है। अध्यात्मगीता में उनका कथन है कि - 'आत्म ज्ञान गुण ज्योति सदा आनंद छे कर्म उदय वश दुःख तोहि सख कन्द छे ज्ञेय, ध्येय निज देह जाणि संशय हरी । देवचन्द्र सुप्रीतिधरो मन थिर करी ।।१२५ ___ अर्थात हे अन्तरात्मा! जिस आत्मा ने अपने निर्मल शुद्ध स्वरूप को प्रत्यक्ष कर लिया है - जिस सर्वज्ञ परमात्मा के ज्ञान में सम्पूर्ण लोकालोक झलकता है, उसी परमात्मा का तू ध्यान कर। देवचन्द्रजी
१२३ ध्यान-दीपिका चतुष्पदी ४/८/३-६ । १२४ वही ४/८/१५-१६ ।
ध्यान-दीपिका चतुष्पदी ४/८/१८-१६ ।
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