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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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करती है।"
४.२.११ आनन्दघनजी के अनुसार अन्तरात्मा का
स्वरूप जैनदर्शन में साधना के क्षेत्र में अन्तरात्मा की विशिष्ट महत्ता है। अन्तरात्मा साधक है; उसका साध्य अपने शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति है। आज तक जितने भी जीवों ने परमात्मपद प्राप्त किया है, उन सभी ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकूचारित्र की साधना की है। उन सभी ने निज अन्तरात्मा से ही परमात्मा को प्राप्त किया है। अतः ध्यान करने से पूर्व परम ध्येय रूप निज आत्मा के भगवान स्वरूप को अन्तरात्मा कहा गया है। आनन्दघनजी ने बहिरात्मा को अन्तरात्मा की ओर अग्रसर बनने की प्रेरणा देते हुए कहा है कि - 'या पुद्गगल का क्या विश्वासा है सुपने का वास रे, चमत्कार बिजली दे जैसे - पानी बिच पतासा। या देही का गर्व न करना जंगल होयगा वासा।। जूठे तन धन जूठे जीवन जूठे हैं घर वासा। आनन्दघन कहे सबजी जूठे साचा शिवपुर बासा ।।२०
अर्थात् इस देह का क्या भरोसा! यह जीवन तो स्वप्नवत् विद्युत की क्षणिक चमक के समान है। जैसे पानी में डाला गया बताशा समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार यह पुद्गल निर्मित देह भी क्षणभंगुर है। चाहे हमारी आत्मा अजर-अमर हो, अविनाशी हो, किन्तु यह जीवन अमर नहीं है। किसी भी दिन देखते ही देखते कब यह देह विलीन हो जाती है, चलते-चलते श्वासों का धागा कब टूट जाय, कब प्राण-पखेरू उड़ जाय, कब जीवन का यह दीप बुझ जाय, इसका कोई निश्चय नहीं है। पूनः वे कहते हैं कि यदि शरीर नश्वर है तो इस पर गर्व करना या इसे अपना मानना वृथा
११६ 'जगी सुद्ध समकित कला, बगी मोख मग जोइ ।
वहै करम चूरन करे, क्रम क्रम पूरन होइ ।। ३६ ।। 'जाके घठ ऐसी दसा, साधक ताकौ नाम ।
जैसे जो दीपक धरै, सो उजियारौ थाम ।। ४० ।।' • आनन्दघन ग्रन्थावली पद १०७ ।
-वही ।
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