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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
करके उन्हें अपना मानती है और इस प्रकार अनात्म में आत्मबुद्धि रखती है; वही बहिरात्मा है। बहिरात्मा सांयोगिक बाह्य पदार्थों में आसक्त बनकर उनसे अपना तादात्म्य स्थापित कर लेती है। इसीलिये एक अन्य पद में वे लिखते हैं कि -
'बहिरात्मा मूढ़ जग जोता, माया के फंद रहेता"३६ अर्थात् यह मूढ़ बहिरात्मा माया के वशीभूत होकर संसार की बाह्य वस्तुओं में ममत्व बुद्धि रखती है। उसका समस्त पुरुषार्थ मात्र बाह्य जगत् के लिये ही होता है। इसी के कारण उसमें राग-द्वेष की लताएँ विकसित हो जाती हैं। उसकी चेतना मोह से आवृत्त होने के कारण वह अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को नहीं पहचान पाती है। आगे आनन्दघनजी बहिरात्मा की मूर्च्छित अवस्था का मार्मिक चित्रण करते हुए कहते हैं :
‘धन धरती में गाढे बौरा, धूरि आप मुख लावै। मूषक सांप होईगो, आखर तातै अलछि कहावै।।३७ अर्थात् यह मूढ़ (बहिरात्मा) धन को जमीन में गाढ़ता है और उसके ऊपर धूल डालता है। किन्तु वह व्यक्ति धन पर नहीं, अपितु स्वयं के ऊपर ही धूल डाल रहा है। वह धन की लोलुपता के कारण मरकर चूहा या सर्प बनकर उसी धन का रक्षण करता है। आगे वे बहिरात्मा की अज्ञानदशा का चित्रण करते हुए कहते हैं कि जैसे सिंह अचानक बकरी को पकड़ लेता है; वैसे ही काल भी अचानक ही आक्रमण करता है। मूढ़ स्वप्नावस्था में उपलब्ध राज्य और आकाश में बादलों की तरह अस्थिर धन, यौवन आदि को स्थाई मान लेता है और अपनी इसी अज्ञानदशा के वशीभूत हो संसार में परिभ्रमण करता रहता है। आनन्दघनजी यहाँ पर बहिरात्मा की मूर्खता का चित्रण करते हुए आगे पुनः लिखते हैं :
___'खखगपद मीन पद जल में, जो खोजे सो बोरा'३८
अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी और जल में मछलियों के पद चिन्ह को खोजना मूर्खता है; वैसे ही क्षणिक पर-पदार्थों या
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आनंदघन ग्रन्थावली पद ६७ । वही पद ४ । आनंदघन ग्रन्थावली पद ३१ ।
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