________________
२००
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
होकर बाह्य संसार में उलझकर रहती है।३० संसार में भूत, भविष्य और वर्तमान काल का चक्र चल रहा है। उसे मिथ्यात्वी कहता है कि मेरा दिन, मेरी रात, मेरी घड़ी और मेरा प्रहर। वह कचरे के ढेर का संग्रह करता है उसे अपना मकान कहता है, पृथ्वीखण्ड को अपना नगर कहता है। इस प्रकार बहिरात्मा अचेतन पदार्थों में डूबकर सत्य से विमुख होकर बाह्य संसार को ही अपना मानती है। अतः वह संसारी बहिरात्मा आध्यात्मिक अनुभूति से पराङ्मुख रहती हुई बाह्य संसार में भ्रमण करनेवाली होती है।३१
३.२.११ श्रीमद् राजचन्द्रजी के अनुसार बहिरात्मा
श्रीमद् राजचंद्रजी 'श्री सद्गुरूभक्ति रहस्य' में बहिरात्मा का निर्वचन करते हुए लिखते हैं कि बहिरात्मा देह और इन्द्रियों से उपलब्ध होनेवाले बाह्य साधनों में राग करती हुई कर्म-बन्धन करती
'माटी भूमि सैलकी सो संपदा बखानै निज, कर्म-मै अमृत जानै ग्यानमैं जहर है। अपनौ न रूप गहै औरहीसौं आपौ के, साता तो समाधि जाकै असाता कहर है ।। कोपको कृपान लिए मान मद पान कियें, माया की मरोर हियै लोभ की लहर है । याही भांति चेतन अचेतन की संगतसौं, सांचसौ विमुख भयौ झूठ-मैं बहर है ।। २८ ।।' 'तीन काल अतीत अनागत वरतमान, जगमैं अखंडित प्रवाह को डहर है । तासौं कहै यह मेरौ दिन यह मेरी राति, यह मेरी घरी यह मेरौही पहर है ।। खेहको खजानौ जोरै तासौं कहे मेरौ गेह, जहाँ बसै तासौ कहे मेरौही सहर है । याहि भांति चेतन अचेतन की संगति सौं, सांचसौं विमुख भयौ झूठ-मैं बहर है ।। २६ ।।'
-वही (मोक्षद्वार) ।
१३१
-समयसार नाटक (मोक्षद्वार) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org