Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
परब्रह्म रूप शुद्ध स्वभाव है ।" निश्चय ही कर्मजन्य रागादि सभी भाव और शारीरादिक विभिन्न पर्यायें पुद्गलजन्य होने के कारण निश्चय से आत्मा से भिन्न हैं । ४६
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योगीन्दुदेव ने अन्तरात्मा के स्वरूप का निर्वचन करते हुए कहा है कि अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टि को प्राप्त करके यह मानती है कि यह आत्मा गोरी नहीं है, काली नहीं है, लाल नहीं है, स्थूल नहीं है और सूक्ष्म भी नहीं है।" वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र भी नहीं है 1 वह स्त्री नहीं है, पुरुष नहीं है । न वह नपुंसक है, न तरूण है, न श्वेताम्बर है और न दिगम्बर है । वह बौद्ध या अन्य किसी लिंग को धारण करने वाली नहीं है। न वह गुरू है, न
(क) 'देहहँ ण पेक्खवि जर मरणु मा भउ जीव करेहि । जो अजरामरू बंभु रू सो अप्पाणु मुणेहि ।। ७१ ।। ' (ख) 'देहहँ उब्भउ जर - मरणु देहहँ वण्णु विचित्तु ।
देहहँ रोय वियाणि तुहुँ देहहँ लिंगु विचित्तु ।। ७० ।।' (क) 'कम्महँ केरा भावडा अणुचे दव्वु ।
जीव सहावš भिण्णु जिय णियमिं बुज्झहि सव्वु ।। ७३ ।।' (ख) 'छिज्ज्उ भिज्जउ जाउ खउ जोइय एहु सरीरू ।
अप्पा भावहि णिम्मलउ जिं पावहि भव तीरू ।। ७२ ।। ' (ग) 'अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अण्णु परायउ भाउ।
सो छंडेविणु जीव तुहुँ भावहि अप्प - सहाउ ।। ७४ ।। ' (घ) 'अट्ठहँ कम्महँ बाहिरउ सयलहँ दोसहं चत्तु ।
दंसण - णाण - चरित्तमउ अप्पा भावि णिरुत्तु ।। ७५ ।। 'हउँ गोरउ हउँ सामलउ हउँ जि विभिण्णउ वण्णु । हउँ तणु-अंगउँ थूलुहउँ एहउँ मूढउ मण्णु ।। ८० ।।' ४८ 'हउँ वरू बंभणु वइसु हउँ हउँ खत्तिउ हउँ सेसु ।
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पुरिसु णउँसर इत्थि हउँ मण्णइ मूढु विसेसु ।। ८१ ।।' (क) 'तरूणउ बूढउ रूयडउ सूरउ पंडिउ दिव्वु ।
खवणउ वंदउ सेवडउ मूढउ मण्णइ सव्वु ।। ८२ ।। (ख) 'अप्पा गोरउ किण्हु ण वि अप्पा रत्तु ण होइ ।
अप्पा हु विलु ण वि णाणिउ जाणें जोइ ।। ८६ ।। ' (ग) 'अप्पा बंभणु वइसु ण वि ण खत्तिउ ण वि सेसु ।
पुरिसु णउंसउ इत्यि ण वि णाणिउ मुणइ असेसु ।। ८७ ।। ' (घ) 'अप्पा वंदउ खवणु ण वि अप्पा गुरउ ण होइ । अप्पा लिंगिउ एक्कु ण वि णाणिउ जाणइ जोइ ॥ ८८ ॥
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- परमात्मप्रकाश 9 ।
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