Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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और मुक्तावस्था में भी प्रत्येक आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व रहता है, किन्तु उपनिषदों में आत्मा के अतिरिक्त जो ब्रह्म का नामान्तरण है, उसमें कुछ भी सत्य नहीं है।६२ जैनधर्म में उपनिषदों की तरह आत्मा एक विश्वव्यापी तत्त्व का अंश नहीं है अपितु उसके अन्दर परमात्मतत्त्व के बीज विद्यमान रहते हैं। जब वह कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिये प्रयासरत होती है या अन्तर्मुखी होकर भी संसार में निर्लिप्त होकर रहती है; तब वह यह जानती है कि राग-द्वेष आदि मानसिक भावों के निमित्त से परमाणु आत्मा से सम्बद्ध हैं एवं आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि है।६३ कर्मों के कारण ही आत्मा की अनेक दशायें होती हैं और आत्मा को शरीर में रहना पड़ता है। वे कर्म-कलंक ध्यान रूपी अग्नि में जल कर नष्ट हो जाते हैं।४ वह अन्तरात्मा शुद्ध स्वरूपी आत्मा के
-परमात्मप्रकाश १ ।
-वही ।
'मेल्लिवि सयल अवक्खडी जिय णिचिंत्तउ होइ । चित्तु णिवेसहि परमपए देउ णिरंजणु जोइ ।। ११५ ।।' 'जं सिवदंसणि परम सुहु पावहि झाणु करतु । तं सुहु भुवणि वि अत्थि णवि मेल्लिवि देउ अणंतु ।। ११६ ।।' 'कम्म-णिबद्ध वि जोइया देहि वसंतु वि जो जि । होइ ण सयलु कया वि कुडु मुणि परमम्पउ सो जि ।। ३६ ।।' (क) 'अप्पा-दंसणि जिणवरहँ जं सुहुहोइ अणंतु । ___ तं सुहु लहइ विराउ जिउ जाणंतउ सिउ संतु ।। ११८ ।।' (ख) 'दसणु णाणु अणंत सुहु समउ ण तुट्टइ जासु ।
सो पर सासउ मोक्ख-फल बिज्जउ अत्थि ण तासु ।। ११ ।।'
-वही ।
-वही ।
-वही २।
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