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जाती है।
योगीन्दुदेव लिखते हैं कि अपनी आत्मा के शुद्धस्वरूप का ध्यान करता हुआ मुनि उस अनन्तसुख को प्राप्त करता है, जिसे इन्द्र भी प्राप्त नहीं कर पाता। योगी अर्थात् अन्तरात्मा अपने निर्मल मन के द्वारा अपने रागादिक भाव से रहित परमात्मस्वरूप का अनुभव करता है । अपने परमात्मस्वरूप का अनुभव निर्मल मन में ही होता है । इसलिए योगीन्दुदेव ने इस बात पर बार-बार बल दिया है । विषय-वासनाओं से ऊपर उठकर निर्मल मन से ही शुद्ध आत्मतत्त्व की आराधना सम्भव है । वे कहते हैं कि परमात्मा समत्वपूर्ण चित्त में ही स्थित हैं । अतः साधना के लिए मन की निर्मलता आवश्यक है । जो विषय - कषायों की और भागते हुए मन को निज परमात्मस्वरूप में स्थिर करता है, वही मोक्ष या परमात्मपद को प्राप्त कर सकता है। अन्य कोई भी तन्त्र या मन्त्र ऐसा नहीं है जो परमात्मस्वरूप की अनुभूति करवा सके । जैनधर्म में आत्मा और पुद्गल दोनों वास्तविक हैं । " आत्माएँ अनन्त हैं
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
(क) 'अप्पा - दंसणि जिणवरहँ जँ सुहु होइ अणंतु । तं सुहु लहइ विराउ जिउ जाणंतउ सिउ संतु ।। ११८ ।। (ख) 'जं मुणि लहइ अनंत-सुहु णिय- अप्पा झायंतु ।
तं सुहु इंदु वि वि लहइ देविहिँ कोडि रमंतु ।।११७ ।।' (ग) 'णेयाभावे विल्लि जिम थक्कइ णाणु वलेवि ।
मुक्कहँ जसु पय बिंबियउ परम - सहाउ भणेवि ।। ४७ ।।' 'जीवहँ सो पर मोक्खु मुणि जो परमप्पय-लाहु । कम्म-कलंक विमुक्काहँ णाणिय बोल्लहिँ साहू ।। १० ।। ' 'गयणि अणंति वि एक्कु उडु जेहउ भुयणु विहाइ । मुक्कहँ जसु पए बिंबियउ सो परमप्पु अणाइ ।। ३८ ।। ' (क) 'जो णिय - करणहिँ पंचहिँ वि पंच वि विसय मुणेइ । मुणिउ ण पंचाहिँ पंचहिँ वि सो परमप्पु हवेइ ।। ४५ ।। ' (ख) 'पंच वि इंदिय अण्णु मणु अण्णु वि सयल - विभाव ।
जीवहँ कम्इँ जणिय जिय अण्णु वि चउगइ-ताव ।। ६३ ।। ' 'जहिँ मइ तहिँ गइ जीव तहुँ मरणु वि जेण लहेहि । तँ परबंभु मुएवि मइँ मा
पर - दव्वि करेहि ।। ११२ ।। '
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-वही |
-वही ।
-वही ।
-वही २ ।
-वही १ ।
-परमात्मप्रकाश १ ।
-वही |
-वही ।
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