Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
को प्राप्त होते हैं।"
४.२.७ अमितगति के योगसार के अनुसार अन्तरात्मा का स्वरूप एवं लक्षण
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अमितगति ने योगसार में चाहे अन्तरात्मा शब्द का स्पष्ट प्रयोग न किया हो, किन्तु उसे ज्ञानी या योगी के रूप में अभिव्यक्त किया है और इसी आधार पर उसके लक्षणों का भी चित्रण किया है । वे लिखते हैं कि ज्ञानी पुरुष विषयों का सम्पर्क होने पर भी उनसे लिप्त नहीं होता है जैसे कीचड़ के मद में पड़ा हुआ सोना उससे लिप्त नहीं होता । विषयों के प्रति राग से रहित योगी उनको जानता हुआ भी उनसे कर्मबन्ध को प्राप्त नहीं होता । १०० ज्ञानी सकल द्रव्यों को जानते हुए भी उनका वेदन नहीं करता, जबकि अज्ञानी उन सबका वेदन करते हुए भी उन सबको नहीं जानता है । इस प्रकार अमितगति की दृष्टि में ज्ञान और अज्ञान में अन्तर है । उनके अनुसार वस्तु जिस रूप में स्पष्ट है, उसे उस रूप में जानना ज्ञान है और रागादि भाव से उससे जुड़ना या वेदन करना अज्ञान है ।" अमितगति यह मानते हैं कि पर-पदार्थ आत्मा का उपकार या अपकार करने में असमर्थ हैं। अतः ज्ञानीजनों को उन पर - पदार्थों के प्रति राग-द्वेष नहीं करना चाहिये । उसे यह विचार करना चाहिए कि शत्रु-मित्र, माता-पिता, पत्नी, भाई और स्वजन
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'विलीनविषयं शान्तं निःसंग त्यक्तविक्रियम् । स्वस्थं कृत्वा मनः प्राप्तं मुनिभिः पदमव्ययम् ।। ३३ ।।' (क) 'दुरितानीव न ज्ञानं निर्वृतस्यापि गच्छति ।
कांचनत्य मले नष्टे कांचनत्वं न नश्यति ।। २१ ।। ' (ख) 'ज्ञानादि-गुणाभावे जीवस्यास्ति व्यवस्थितः ।
लक्षणापगमे लक्ष्यं न कुत्राप्य वतिष्ठते ।। २२ ।।' (ग) 'ज्ञानी विषयसंगे ऽपि विषर्यैर्नैवलिप्यते ।
कनकं मलमध्येऽपि न मलैरूपलिप्यते ।। १६ ।।' (क) 'निग्रहानुग्रहो कर्तुं कोऽपि शक्तोऽस्ति नात्मनः ।
रोष - तोषौ न कुत्रापि कर्तव्याविति तात्त्विकैः ।। १० ।।' (ख) 'परस्याचेतनं गात्रं दृष्यते न तु चेतनः । उपकारे ऽपकारे क्व रज्यते क्व विरज्यते ।। ११ ।। '
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-वही ।
- योगसारप्राभृत अ. ७ ।
-वही ।
-वही अ. ४ ।
- वही अ. ५ ।
-वही ।
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