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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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को रोकना भी व्यर्थ है। क्योंकि मन की शुद्धता से ही दोषों का विलय होता है। जब मन राग-द्वेष में परिवर्तित नहीं होता है तभी वह अपने आत्मस्वरूप में लीन होता है और उससे ही आत्मा की सिद्धि होती है। वे कहते हैं कि मन की शुद्धि से ही जीवन की शुद्धता होती है। मन की शुद्धता के बिना तप आदि बाह्य क्रियाएँ वृथा हैं। उससे केवल काय को क्षीण करना है। वस्तुतः जिस मुनि का मन अपने आत्मस्वरूप में लीन हो गया हो, उसके चरण-कमल में तीनों ही जगत् सम्यक् प्रकार से लीन हो गये हैं। जिसने मन की निःशंकता को प्राप्त कर लिया है, वही मुनि मुक्ति-रूपी रमणी
- ज्ञानार्णव सर्ग ३२ ।
-वही ।
-वही ।
-वही ।
(क) 'सुसंवृतेन्द्रियग्रामे प्रसने चान्तरात्मनि ।
क्षणं स्फुरति यत्तत्त्व तद्रूपं परमेष्ठिनः ।। ४४ ।।' (ख) 'पृथगित्थं न मां वेत्ति यस्तनो-तविभ्रमः ।
कुर्वत्रपि तपस्तीव्र न स मुच्येत बन्धनैः ।। ४७ ।।' (ग) 'मयि सत्यपि विज्ञानप्रदीपे विष्वदर्शिनि ।
किं निमज्जत्ययं लोको वराको जन्मकर्दमे ।। ४० ।।' (घ) 'यः सिद्धात्मा परः सोऽहं योऽहं स परमेष्वरः ।
मदन्यो न मयोपास्यो मदन्येन न चाप्यहम् ।। ४५ ।।' (च) निर्विकल्पं मनस्तत्त्वं न विकल्पैरभिद्रुतम् ।
निर्विकल्पमतः कार्यं सम्यक्तत्त्वस्य सिद्धये ।। ५० ।।' (छ) “रागादिमल विष्लेषाद्यस्य चित्तं सुनिर्मलम् ।
सम्यक् स्वं स हि जानाति नान्यः केनापि हेतुना ।। ४६ ।।' (ज) “आत्मानं सिद्धमाराध्य प्राप्नोत्यात्मापि सिद्धताम् ।
वर्तिः प्रदीपमासाद्य यथाभ्येति प्रदीपताम् ।। ६४ ।।' (झ) इति साधारणं ध्येयं ध्यानयोधर्मशुक्लयोः ।
विषुद्धिस्वामिभेदेन भेदः सूत्रे निरुपितः ।। १०४।।' (ट) “अजिताक्षः कषायाग्निं विनेतुं न प्रभुर्भवेत् ।
अतः क्रोधादिकं जेतुमक्षराधः प्रषस्यते ।। १ ।।'
-वही ।
-वही ।
-वही ।
-वही ।
-वही सर्ग २० ।
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