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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
क्योंकि आत्मज्ञान के बिना निर्वाण की प्राप्ति सम्भव नहीं है। उनकी दृष्टि में आत्मा के द्वारा आत्मा को जानने से शाश्वत् सुख या मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। जो मुनि (अन्तरात्मा) परभाव का त्याग करके अपनी आत्मा से अपनी आत्मा को पहिचानते हैं, वे केवलज्ञान को प्राप्त करके मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि योगीन्दुदेव ने बाह्य कर्मकाण्डों की अपेक्षा आत्मानुभूति को ही अन्तरात्मा का लक्षण माना है।
४.२.५ मुनि रामसिंह की दृष्टि में अन्तरात्मा का
स्वरूप एवं लक्षण मुनिरामसिंह अन्तरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए सर्वप्रथम यह बताते हैं कि जो घर, परिजन एवं ऐन्द्रिक विषयों को अपना नहीं मानता है वही आत्मज्ञानी साधक है।०७ जो शरीर एवं तद्जन्य रोग, वृद्धावस्था आदि से अपने को भिन्न समझता है, वही
आत्मज्ञानी साधक है। वे लिखते हैं - "न तो तुम पण्डित हो, न मूर्ख, न ईश्वर हो, न नरेश, न तुम सेवक हो, न स्वामी हो, न शूरवीर हो, न कायर हो, न तुम श्रेष्ठ हो और न नीच, न तुम पुण्य हो, न पाप, न काल, न आकाश, न धर्म, न अधर्म और न शरीर ही हो। इस प्रकार जो देह और देहजन्य विभिन्न
-वही।
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-पाहुडदोहा ।
-वही ।
७६ 'सत्य पढंतह ते वि जड अप्पा जे ण मुणंति ।
तहिँ कारणि ए जीव फुडु ण हु णिव्वाणु लहति ।। ५३ ।।' (क) 'जो मुणि छंडिवि विसयसुह पुणु अहिलासु करेइ । ___ ढुंचणु सोसणु सो सहइ पुणु संसारू भगेइ ।। १७ ।।' (ख) 'विसया-सुह दुइ दिवहडा पुणु दुक्खहं परिवाडि ।
भुल्लउ जीव म बाहि तुहं अप्पाखंधि कुहाडि ।। १८ ।।' (ग) 'देहहो पिक्खिवि जरमरणु भा भउ जीव करेहि ।
__ जो अजरामरू बंभु परू सो अप्पाण मुणेहि ।। ३४ ।।' ७८
(क) 'णवि तुहुँ पंडिउ मुक्खु णवि णवि ईसरू णवि णीसु । ___णवि गुरू कोइ वि सीसु णवि सब्बई कम्मविसेसु ।। २८ ।।' (ख) 'णवि तुहुं कारणु कज्जु णवि णवि सामिउ णवि भिच्चु ।
सूरउ कायरू जीव णवि णवि उत्तमु णवि णिच्चु ।। २६ ।।' (ग) 'पुण्णु वि पाउ वि कालु णहु, धम्मु अहम्मु ण काउ ।
एक्कु वि जीव ण होहि तुहं मेल्लिवि चेयणभाउ ।। ३० ।।'
-वही ।
-वही ।
-वही ।
-वही ।
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