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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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परित्याग करके निर्मल आत्मतत्त्व को जानेगी तभी संसार से मुक्त हो सकेगी। उनकी दृष्टि से आत्म-अनात्म का विवेक ही प्रमुख तत्त्व है।७२ वे कहते हैं कि जो आत्म-अनात्म के भेद को जानता है, वही सब कुछ जानता है और ऐसा योगी (अन्तरात्मा) मोक्ष को प्राप्त करता है। इसीलिए यदि मोक्ष को पाने की इच्छा है तो केवलज्ञान स्वभाव वाले आत्मतत्त्व को जान ।७३ आत्मतत्त्व के ज्ञान के बिना समग्र साधना निरर्थक है। वे लिखते हैं कि कौन तो समाधि करे, कौन पूजन-अर्चन करे, कौन स्पर्शास्पर्श का विचार करे, किसके साथ कलह करे और किसके साथ मैत्री करे; क्योंकि सर्वत्र ही आत्मा दृष्टिगोचर होती है।४ वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि यह आत्मा देहरूपी देवालय में विराजमान है। उनके शब्दों में जिनदेव या परमात्मा देहरूपी देवालय में विराजमान हैं। धर्म वहीं है, जहाँ आत्मा राग-द्वेष को छोड़कर अपने में निवास करती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि योगीन्दुदेव ने साधना के क्षेत्र में आत्मज्ञान को ही सर्वाधिक महत्व दिया है। वे लिखते हैं कि जो शास्त्रों को पढ़ते हैं किन्तु आत्मा को नहीं जानते वे मूर्ख ही हैं,
-वही ।
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(क) “णिम्मलु णिक्कलु सुद्ध जिणु विण्हु बुद्धु सिव संतु ।
सो परमप्पा जिण-भणिउ एहउ जाणि णिभंतु ।। ६ ।।' (ख) 'देहादिउ जे परि कहिया ते अप्पाणु मुणेइ । ___ सो बहिरप्पा जिणभणिउ पुणु संसारू भमेइ ।। १० ।' (ग) 'देहादिउ जे परि कहिया ते अप्पाणु ण होहिं । इउ जाणेविणु जीव तुहुँ अप्पा अप्प मुणेहि ।। ११ ।।' (क) 'अप्पा अप्पउ जइ मुणहि तो णिव्वाणु लहेहि ।
पर अप्पा जइ मुणहि तुहुँ तो संसार भमेहि ।। १२ ।।' (ख) 'इच्छा रहियाउ तव करहि अप्पा अप्पु मुणेहि ।
तो लहु पावहि परम-गई फुडु संसारू ण एहि ।। १३ ।।' (ग) 'परिणाम बंधु जि कहिउ मोक्ख वि तह वियाणि । ___इउ जाणेविणु जीव तुहुँ तहभाव हु परियाणि ।। १४ ।।' 'को सुसमाहि करउ को अंचउ-छोपु अछोप करिवि को वंचउ । हल सहि कलहु केण समाणउ जहिँ कहिँ जोवउ तहिँ अप्पाणउ ।। ४० ।।' ___ 'राय-रोस बो परिहरिवि बे अप्पाणि बसेइ ।।
सो धम्मु वि जिण-उत्तियउ जो पंचमगइ रोइ ।। ४८ ।।'
-वही।
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-वही ।
-वही ।
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