Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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अवस्थाओं एवं इन्द्रियों के विषयों को अपना नहीं मानता है, जो जीव आत्मा के ज्ञानमय स्वरूप को छोड़कर अन्य सभी को परभाव मानता है और अपने सिद्ध स्वरूप का ही ध्यान करता है, वही अन्तरात्मा है; इस प्रकार जिसने ज्ञानस्वरूप आत्मा को देहादि से भिन्न जान लिया है, वही अन्तरात्मा है। जब मन परमात्मा से मिल जाता है अर्थात् परमात्मा में लीन हो जाता है और परमात्मा मन से मिल जाता है, जब दोनों ही समरस भाव को प्राप्त हो जाते हैं, तब उनके लिए अन्तरात्मा और परमात्मा का भेद भी समाप्त हो जाता है। उस समय पूज्य-पूजक या अराध्य-आराधक, ऐसा भेद भी समाप्त हो जाता है। साधक आत्मा वह है जो अपनी साधना के अन्तिम चरण में अपने शुद्ध परमात्मस्वरूप की अनुभूति करने लगती है। आध्यात्मिक गुणों की दृष्टि से उन्होंने कहा है कि बहिरात्मा से अधिक निर्मल एवं श्रेष्ठ अन्तरात्मा है। इस प्रकार बहिरात्मा का विसर्जन कर तथा परमात्मा में अन्तरात्मा का समर्पण कर परमात्म-अवस्था को प्राप्त करना ही साधक की आत्मा का मुख्य साध्य माना गया है। किन्तु अन्तरात्मा से ही आध्यात्मिक विकास सम्भव है। - मुनिरामसिंह अन्तरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जिसने मरकतमणि की पहिचान करली है, उसे काँच से क्या प्रयोजन है?' उसी प्रकार जिसने केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टय से युक्त आत्मा का साक्षात्कार कर लिया है, उसे सांसारिक पदार्थों से
-वही ।
-वही ।
७६ (क) 'देहहं उब्भउ जरमरणु देहहं वण्ण विचित्त ।
देहहं रोया जाणि तुहं देहहं लिंगई मित्त ।। ३५ ।।' (ख) 'अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अवरू परायउ भाउ ।
सो ठंडेविणु जीव तुहुं झायहि सुद्धसहाउ ।। ३८ ।।' (क) 'वष्णविहूणउ णाणमउ जो भावइ सब्भाउ ।
संतु णिरंजणु सो लि सिउ तहिं किज्ज्ड अणुराउ ।। ३६ ।।' (ख) 'बुज्झहु बुज्झहु जिणु भणइ को बुज्झइ हलि अण्णु । अप्पा देहहं णाणमउ छुडु बुज्झियउ विभिण्णु ।। ४१ ।' (क) 'अप्पा मेल्लिवि जगतिलउ मूढ म झायहि अण्णु ।
जइ मरगउ परियाणियउ तहु किं कच्चहु गण्णु ।। ७२ ।।' (ख) 'णिल्लक्खणु इत्थीबाहिरउ अकुलीणउ महु मणि ठियउ । ..
तासु कारण ज्ञाणी माहुर जेण गवंमउ संठियउ ।। १०० ।।'
-वही।
-वही ।
-पाहुडदोहा।
-वही ।
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