Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
दी है।
४.२.६ आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव में अन्तरात्मा
का स्वरूप एवं लक्षण । ___ आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव के २८वें सर्ग में आसनजय की चर्चा के प्रसंग में न केवल अन्तरात्मा किन्तु उसके तीन भेदों का भी संकेत किया है। वे लिखते हैं कि धर्मध्यान के ध्यान (अन्तरात्मा के ध्याता) तीन प्रकार के कहे गये हैं, जो आत्मा की विशुद्धि के स्तर पर होते हैं। इसके पूर्व उन्होंने गुणस्थान की अपेक्षा से चार प्रकार की अन्तरात्मा का भी उल्लेख किया है :
१. अविरतसम्यग्दृष्टि; २. देशविरत;
३. प्रमत्तसंयत; और ४. अप्रमत्तसंयत। सामान्यतः गुणस्थानों की अपेक्षा से अन्तरात्मा के प्रकारों की जो चर्चा हुई है, उसमें सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणमोह तक सभी गुणस्थानों की आत्माओं को सम्मिलित किया गया है। पुनः उनके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, ऐसे तीन भेद किये गए हैं और उसमें अविरतसम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा है; देशविरत और प्रमत्तसंयत मध्यम तथा अप्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती उत्कृष्ट अन्तरात्मा है। चाहे इन दो गाथाओं में स्पष्ट रूप से अन्तरात्मा का उल्लेख नहीं हुआ हो, किन्तु पहले सम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक की चार अवस्थाओं का उल्लेख करके फिर उन्हें तीन भागों में विभाजित करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य शुभचन्द्र ने यहाँ अन्तरात्मा के तीन भेदों का ही उल्लेख किया है।
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-वही ।
(क) विसयकसाय चएवि वढ अप्पहं मणु वि धरेहि ।
चूरिवि चउगइ णित्तुलउ परमप्पउ पावेहि ।। १६६ ।।' (ख) इंदियविसय चएवि वढ करि मोहहं परिचाउ ।
अणुदिणु झावहि परमपउ तो एहउ ववसाउ ।। २०३।।' 'ध्यातारस्त्रिविधा ज्ञेयास्तेषां ध्यानान्यपि त्रिधा । लेष्याविशुद्धियोगेन फलसिद्धिरूदाहता ।। २६ ।।' 'किं च कैश्चिच्च धर्मस्य चत्वारः स्वामिनः स्मृताः । सदृष्ट्याद्यप्रमत्तान्ता यथायोग्येन हेतुना ।। २८ ।।'
-वही।
८६
-ज्ञानार्णव सर्ग २८ ।
-वही ।
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