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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
ध्यान में संलग्न हो जाती है। मुनि श्री योगीन्दुदेव अन्तरात्मा को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं कि छः द्रव्यों में केवल यही एक चेतन द्रव्य है - शेष जड़ हैं। यह अनन्तज्ञान और अनन्त आनन्द का भण्डार है एवं अनादि और अनन्त है। दर्शन और ज्ञान उसके मुख्य गुण हैं। ऐसी अन्तरात्मा चिन्तन करती है कि “जब तक संसार की ओर से मुख नहीं मोडूंगी; तब तक आत्मा का साम्राज्य उपलब्ध नहीं हो सकता। आत्मा का साम्राज्य प्राप्त करने के लिए अन्तर्मुखी दृष्टि करनी होगी।" अन्तरात्मा बाह्य संसार से विमुख होकर अन्तर्मुखी होता है। अतः योगीन्दुदेव ने आत्मा में जो परमात्मा विराजमान है, उस शुद्ध आत्मा की अनुभूति को ही अन्तरात्मा का मुख्य लक्ष्य कहा है।
आगे योगीन्दुदेव आत्मा के स्वरूप का निर्वचन करते हुए कहते हैं कि ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र आत्मा से भिन्न नहीं हैं। अतः
अन्तरात्मा केवल शुद्ध आत्मस्वरूप का ही ध्यान करती है। वे लिखते हैं कि जो आत्मा के निर्मल स्वभाव का ध्यान करता है, वह उस ध्यान के द्वारा एक क्षण में ही परमपद को प्राप्त हो जाता है।
-वही १।
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(क) 'जोइय-विंदहिँ णाणमउ जो झाइज्जइ झेउ ।
मोक्खहँ कारणि अणवरउ सो परमप्पउ देउ ।। ३६ ।।' (ख) 'जो जिउ हेउ लेहवि विहि जगु बहु विहउ जणेइ ।
लिंगत्तय-परिमंडियउ सो परमप्पु हवेइ ।। ४०।।' (ग) देहि वसंत वि हरि-हर वि जं अज्ज वि ण मुणंति।
परम-समाहि-तवेण विणु सो परमप्पु भणति ।। ४२ ।।' (घ) 'जो णिय-करणहिँ पंचहिँ वि पंच वि विसय मुणेइ।
मुणिउ ण पंचहिँ पंचहिँ वि सो परमप्पु हवेइ ।। ४५ ।।' (च) 'कम्महि जासु जणंतहिँ वि णिउ णिउ कज्जु सया वि ।
किं पि ण जणियउ हरिउ णवि सो परमप्पउ भावि ।। ४८ ।।' (छ) 'कम्म-णिबद्ध वि होइ णवि जो फुडु सो कम्मु कया वि ।
कम्मु वि जो ण कया वि फुड सो परमप्उ भावि ।। ४६ ।।' (ज) 'जे णिय-बोह-परिट्ठियहँ जीवहँ तुट्टइ णाणु ।
इंदिय-जणियउ जोइया ति जिउ वि वियाणु ।। ५३ ।।' (झ) “एयहिँ जुत्तउ लक्खणहिँ जो परू णिक्कलु देउ ।
सो तहिँ णिवसइ परम-पइ जो तइलोयहँ झेउ ।। २५ ।।'
-वही ।
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