Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
न
शिष्य है, न सेवक है और न स्वामी है । न वह शूरवीर है और न ही कायर है । न वह उच्चकुल वाली है और न निम्नकुल वाली ही है । न वह मनुष्य है, न नारक है और न ही तिर्यंच है ।" क्योंकि ये सभी तो कर्मों अथवा शरीर, वेश आदि के निमित्त से होने वाली अवस्थाएँ हैं। आगे वे पुनः कहते हैं कि आत्मा न पण्डित है, मूर्ख है, न निर्धन है, न धनी है, न जवान है, न बूढ़ी है और न ही बालक है ।" इसी प्रकार न वह पुण्यरूप है और न पापरूप है । वह धर्मादि द्रव्यों से भी भिन्न है । आत्मा तो निज गुणपर्याय की धारक चिदानन्द, ज्ञानस्वरूप, संयमशील और तपस्वरूप है । वह शाश्वत् शुद्धस्वरूप और ज्ञाता स्वभाव वाली है। इस प्रकार जो विभावरूप परिणतियों को अपना नहीं मानती है और शुद्ध ज्ञान-दर्शनमय आत्मा को अपना मानती है उसे अन्तरात्मा कहा जाता है।
योगीन्दुदेव अन्तरात्मा के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करते हैं कि वह आत्मा संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर, वीतराग परमानन्द के सुखामृत से राग-द्वेष से परे हटकर तथा अपने शुद्धात्मस्वरूप में अनुरागी होकर अन्तरात्मा में रमण करती है। जब वैराग्य भावना प्रबल हो जाती है, तब संसाररूपी बेल छूट
५० 'अप्पा गुरू णवि सिस्सु णवि णवि सामिउ णवि भिच्चु ।
सूरउ कायरू होइ णवि णवि उत्तमु णवि णिच्चु ।। ८६ ।।'
'अप्पा माणुसु देउ ण वि अप्पा तिरिउ ण होइ ।
अप्पा गरउ कहिँ वि णवि णाणिइ जाणइ जोइ ।। ६० ।। ' 'अप्पा पंडिउ न मुक्खु णवि णवि ईसरू णवि णी । तरूणउ बूढ़उ बालु णवि अण्णु वि कम्म - विसेसु ।। ६१ ।।' ५३ 'पुण्णु वि पाउ वि कालु णहु धम्माधम्मु वि काउ ।
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एक्कु वि अप्पा होइ गवि मेल्लिवि चेयण - भाउ ।। ६२ ।। ' 'अप्पा संजम सीलु तउ अप्पा दंसणु णाणु ।
अप्पा सासय- मोक्ख-पउ जाणंतर अप्पाणु ।। ६३ ।।'
'अण्णु जि दंसणु अत्यि ण वि अण्णु जि अत्थि ण णाणु । अणु जि चरणु ण अस्थि जिय मेल्लिवि अप्पा जाणु ।। ६४ ।।'
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- परमात्मप्रकाश १ ।
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