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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
आरोहण करने से शुक्लध्यान उत्पन्न होता है। यहाँ पर योगीन्दुदेव ने आत्मा की दो श्रेणियाँ स्वीकारी हैं - एक क्षपकश्रेणी और दूसरी उपशमश्रेणी। क्षपकश्रेणी वाले उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो जाते हैं और उपशमश्रेणी वाले वें, वे, १०वें एवं ११वें गुणस्थान का स्पर्श करते हैं किन्तु उपशमित कषायों का उदय होने से पुनः पतित हो जाते हैं। वे यदि प्रयत्न या पुरुषार्थ करते रहें तो कुछ भवों में क्षपक श्रेणी से आरोहण करके मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं। जब क्षपक श्रेणी वाले ८वें व वें गुणस्थान को प्राप्त करते हैं तब कषायों का सर्वथा नाश करते हैं। दसवें गुणस्थान में मुनि का संज्वलन लोभ शेष रहने से सरागचारित्र होता है एवं इसके अन्त में सक्ष्म लोभ के भी नष्ट हो जाने से वीतराग चारित्र की प्राप्ति होती है। वे १२वें गुणस्थान में जाते हैं। ग्यारहवें गुणस्थान का स्पर्श नहीं करते। वे १२वें गुणस्थान के अन्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय - इन तीनों घातीकर्मों का नाश करते हैं। तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान प्रकट होता है। तब अन्तरात्मा शुद्ध परमात्मा बन जाती है। इस प्रकार ४थे से १२वें गुणस्थान तक आत्मा अन्तरात्मा रहती है। परमात्मप्रकाश में त्रिविध आत्मा का स्वरूप स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है। योगीन्दुदेव ने अन्तरात्मा पर सर्वाधिक बल दिया है। उन्होंने अन्तरात्मा को विचक्षण कहा है। वस्तुतः जिनका वीतराग, निर्विकल्प स्वसंवेदन रूप परिणमन है, वे अन्तरात्मा हैं। अन्तरात्मा अर्थात् सम्यग्दृष्टि आत्मा उपादेय है। किन्तु यह परमात्मा की अपेक्षा से कहा गया है। योगीन्दुदेव परमात्मप्रकाश में अन्तरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि वह मोक्ष के निमित्तभूत परमात्मदेव के केवलज्ञानमय स्वरूप का ध्यान करती है; क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त कोई ध्येय नहीं
३६ 'अप्पा ति विहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लह भाउ । मुणि सण्णणे णाणमउ जो परमप्प-सहाउ ।। १/१२ ।।'
___-परमात्मप्रकाश के विस्तृत विवेचन पर आधारित पृ. १९-२० । ३७ 'मूढु वियक्खणु बंभु परू अप्पा ति-विहु हवेइ । देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूदु हवेइ ।। १३ ।।'
-परमात्मप्रकाश १ । 'देह-विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ ।। परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ।। १४ ।।'
-वही।
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