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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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पहचानती है तथा भव-भ्रमण की भूल को टालकर मुक्ति को प्राप्त करने का प्रयास करती है।३४
स्व
४.२.४ योगीन्दुदेव के अनुसार अन्तरात्मा का
स्वरूप एवं लक्षण (क) परमात्मप्रकाश में आत्मा का स्वरूप
अन्तरात्मा के लक्षणों को व्यक्त करते हुए योगीन्दुदेव कहते हैं कि अन्तरात्मा वीतराग, निर्विकल्प, स्वसंवेदन ज्ञानरूप परिणमन करती हुई सम्यग्दर्शनादि का उपार्जन करती है। वे कहते हैं कि चतुर्थ गुणस्थान में मिथ्यात्वमोह एवं अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय का अभाव होने से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। किन्तु कषाय की तीन चौकड़ी (प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी और संज्वलन) शेष रहने से द्वितीया के चन्द्रमा के समान विशेष प्रकाश नहीं होता तथा पाँचवें गुणस्थान में श्रावक के दो चौकड़ी (अनन्तानुबन्धी एवं अप्रत्याख्यानी) का अभाव होने से रागभाव भी कुछ कम होता है। वीतराग भाव बढ़ने से स्वसंवेदन ज्ञान प्रबल होता है। किन्तु दो चौकड़ी (प्रत्याख्यानी और संज्वलन) रहने से मुनिसम प्रकाश नहीं होता। रागभाव के निर्बल होने से वीतरागभाव होता रहता है। किन्तु चौथी चौकड़ी (संज्वलन) - छठे गुणस्थान वाले सराग संयमी हैं। उनके सातवें गुणस्थान में चौथी चौकड़ी (संज्वलन) मन्द हो जाती है। तब वे ध्यानारूढ़ होकर छठे से सातवें गुणस्थान में आते हैं, जिसका काल अन्तर्मुहुर्त माना है। आठवें गुणस्थान में संज्वलन कषाय (चौथी चौकड़ी) अत्यन्त मन्द हो जाता है। तब रागभाव की अत्यन्त क्षीणता होने से वीतरागभाव पुष्ट होता है एवं श्रेणी का
-परमात्मप्रकाश १।
समाधितन्त्र २५-६६ । (क) 'मूढु वियक्खणु बंभु परू अप्पा ति-विहु हवेइ ।
देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढु हवेइ ।। १३ ।।' (ख) 'पज्जय-रत्तउ जीवडउ मिच्छादिट्टि हवेइ । _बंधइ बहु-विह-कम्मडा में संसारु भमेइ ।। ७७ ।।' (ग) 'जेण कसाय हवंति मणि सो जिय मिल्लहि मोहु ।
मोह-कसाय विवज्जयउ पर पावहि सम-बोहु ।। ४२ ।।'
-वही।
-वही २ ।
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