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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
चेतन को एक मानती है। जीव देह को प्रत्यक्ष देखकर उसे ही आत्मा समझता है।४० बहिरात्मा देह की सजावट में लगी रहती है। सौन्दर्य की अभिवृद्धि के लिये प्रयासरत होती है। बहिरात्मा आत्मा को अमूर्त अरूपी नहीं मानती। वह धन-धरती, सत्ता-सम्पत्ति, पुत्र, पत्नी, परिवार आदि को अपना समझती है और उसकी अभिवृद्धि में लगी रहती है। देवचन्द्रजी कहते हैं कि बहिरात्मा की रुचि जब तक बाह्य संसार की ओर होगी, तब तक उसे आत्मा की प्रतीति नहीं हो सकती है। वह स्वयं आत्मा होते हुए भी आत्मा के अस्तित्व के प्रति शंका रखती है। जिस आत्मा को अपने आप पर शंका होती है; वह आत्मा कैसे आत्म साधना के मार्ग पर आरूढ़ हो सकती है? वे स्पष्ट रूप से बहिरात्मा के लक्षणों की अभिव्यक्ति करते हुए कहते हैं कि बहिरात्मा अज्ञानता के वशीभूत होकर कर्मों से मोहित होती है। बहिरात्मा के अन्तर में जब तक ज्ञान ज्योति प्रज्ज्वलित नहीं होती तब तक वह अन्तरात्मा की ओर गतिशील नहीं हो सकती।
३.३ बहिरात्मा के प्रकार एवं अवस्थाएँ
सामान्यतया तो मिथ्यादृष्टि आत्मा को बहिरात्मा कहा गया है, किन्तु व्यक्ति के मिथ्यात्वगुण में भी तरतमता होती है। उसकी अपेक्षा से जैनाचार्यों ने बहिरात्मा में भी तरतमता मानी है और उसी तरतमता के आधार पर उसके भेद किये हैं। द्रव्यसंग्रह की टीका में बहिरात्मा के तीन भेद किये गये हैं। वे इस प्रकार हैं : १. तीव्र बहिरात्मा; २. मध्यम बहिरात्मा; और ३. मन्द बहिरात्मा। १. तीव्र बहिरात्मा : सैद्धान्तिक दृष्टि से मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती
आत्मा को तीव्र बहिरात्मा कहा जाता है। वस्तुतः जो आत्मा गहन अज्ञानरुपी अन्धकार में डूबी हुई है, जिसके विवेक का प्रस्फुटन भी अभी नहीं हुआ है; जो देहभाव में निमग्न है -
१४० ध्यानदीपिका चतुष्पदी (४/८/१/२) ।
(क) विचार रत्नसार (पृ. १७८); (ख) उद्धृत 'उपाध्याय देवचंद्र : जीवन, साहित्य और विचार'
-महोपाध्याय ललितप्रभसागरजी म.सा. ।
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