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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
है। पाप को पाप समझकर भी उसे छोड़ नहीं पाता। उसकी जीवनदृष्टि सम्यक् होती है, लेकिन उसका आचार पक्ष शिथिल होता है। वह पाप प्रवृत्ति का त्यागी नहीं होता।
इसी आधार पर यह कहा जाता है कि अविरतसम्यग्दृष्टि की आत्मा बहिरात्मा ही है; क्योंकि उसका जीवन भोगपरक होता है। जो विचारक यह मानते हैं कि सत्य केवल जानने का विषय नहीं है, जीने का विषय है, उनकी दृष्टि में अविरत बहिरात्मा ही है। दूसरे शब्दों में कहें तो आचरण की अपेक्षा से अविरतसम्यग्दृष्टि बहिरात्मा ही हैं। किन्तु देवचन्द्रजी की यह मान्यता उचित नहीं है, क्योंकि अविरतसम्यग्दृष्टि में सत्य की सम्यक् समझ होती है। इसलिये विषय वासनाओं में जीते हुए भी उसके वासना के संस्कार दृढ़िभूत नहीं होते। इसलिये अविरतसम्यग्दृष्टि की आत्मा को एकान्तरूप से बहिरात्मा नहीं कहा जा सकता। आचारपक्ष की अपेक्षा से वह बहिरात्मा है किन्तु विचारपक्ष की अपेक्षा से वह अन्तरात्मा ही है। सामान्यतया सभी जैनाचार्यों ने अविरतसम्यग्दृष्टि को अन्तरात्मा ही माना है। हमारी दृष्टि में स्वरूपबोध की अपेक्षा से अविरतसम्यग्दृष्टि की आत्मा अन्तरात्मा के वर्ग में आती है, किन्तु लक्षण या बाह्य व्यवहार की अपेक्षा से उसे मन्द बहिरात्मा भी कहा जा सकता है।
३.५ बहिरात्मा और लेश्या ___ व्यक्ति के मनोभावों और उनके आधार पर कर्मवर्गणाओं से बने हुए आभामण्डलों को लेश्या कहा जाता है। सामान्यतः जो आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है, उसे लेश्या कहा जाता है। ऐसा आत्मा के शुभ एवं अशुभ मनोभावों के कारण होता है, किन्तु दूसरी ओर लेश्याओं के कारण मनोभावों का जन्म भी होता है। इस प्रकार लेश्या द्रव्यरूप से मनोभावों का कारण है और मनोभाव भावरूप से लेश्याओं के कारण हैं। इसी आधार पर मनोभावों को भावलेश्या और कर्मवर्गणा से निर्मित व्यक्ति के आभामण्डल को द्रव्यलेश्या कहा जा सकता है। द्रव्यलेश्या और भावलेश्या का सम्बन्ध ठीक वैसा ही है जैसा मुर्गी और अण्डे का होता है। इनमें
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