________________
बहिरात्मा
कौन पूर्ववर्ती और कौन पश्चातवर्ती है यह कहना कठिन है । मनोभाव शुभ और अशुभ दो प्रकार के हैं। इन मनोभावों की तरतमता के आधार पर जैनदर्शन में निम्न ६ लेश्याएँ मानी गयी
हैं :
१. कृष्ण लेश्या; ४. तेजो लेश्या;
३. कापोत लेश्या;
२. नील लेश्या; ५. पद्म लेश्या; और ६. शुक्ल लेश्या । इनमें प्रथम तीन लेश्याएँ अशुभ और अन्तिम तीन लेश्याएँ शुभ कही गई हैं। प्रस्तुत प्रसंग में मुख्य विचारणीय प्रश्न यह है कि बहिरात्मा की किस प्रकार की लेश्याएँ होती हैं । सामान्य नियम तो यही है कि बहिरात्मा में तीनों अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं, यद्यपि भावलेश्या की अपेक्षा से सभी शुभ लेश्याएँ सम्भव हो सकती हैं। विशेष रूप से उस समय जबकि मिथ्यादृष्टि आत्मा सम्यक् की ओर अभिमुख होती है । किन्तु बहिरात्मा सदैव मिथ्यादृष्टि ही होती है। अतः उसकी लेश्या सदैव अशुभ ही होगी, क्योंकि जब तक अनन्तानुबन्धी कषाय की उपस्थिति है, तब तक लेश्या अशुभ ही बनी रहती है। चाहे भावों के परिवर्तन के आधार पर उसमें क्षणिक रूप से शुभभावों का परिणमन हो और उसके परिणामस्वरूप शुभ भावलेश्याएँ हों, किन्तु जब तक व्यक्ति बहिरात्मा है, तब तक उसमें शुभ लेश्याएँ स्थायी रूप से प्रकट नहीं होती हैं। उसकी बहिर्मुखी जीवनदृष्टि शुभभावों का स्थाई रूप से परिणमन नहीं होने देती । अतः निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि बहिरात्मा में द्रव्यलेश्या अथवा स्थाई भावों की अपेक्षा से तो सदैव अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं। क्योंकि जब तक व्यक्ति बहिरात्मा होता है तब तक वह नियम से मिथ्यादृष्टि ही होता है और जो मिथ्यादृष्टि होता है, नियम से उसमें अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय रहता है और जहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय रहता है वहाँ नियम से द्रव्यलेश्या तो अशुभ ही होती है ।
२०७
३.६ बहिरात्मा और कषाय
जैनदर्शन में आत्मा को बन्धन में डालनेवाले तत्त्वों में कषाय ही प्रमुख हैं । कषाय निम्न चार माने गये हैं :
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org