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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
कि मौनभाव से प्रतिक्रमण आदि के द्वारा आत्मस्वरूप का परीक्षण करता हुआ योगी निज कार्य को साध लेता है अर्थात परमपद की प्राप्ति कर लेता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने साधक को आत्म उन्मुख रहने का सन्देश देते हुए कहा है कि संसार में अनेक प्रकार के जीव हैं; उनके अनेक प्रकार के कर्म हैं और उन कर्मों के जन्य अनेक प्रकार की उपलब्धियाँ हैं। इसलिए साधक को स्वसमय अर्थात् स्वधर्मियों और परसमय अर्थात् अन्यधर्मियों के साथ विवाद में नही पड़ना चाहिये। अन्त में आचार्य कुन्दकुन्द का निर्देश यही है कि साधक आवश्यकादि क्रियाओं को अवश्य करे; क्योंकि सभी पुराण पुरुष इन आवश्यकादि क्रियाओं को करते हुए ही अप्रमत्त अवस्था को प्राप्त करके कैवल्य को प्राप्त हुए हैं।
अन्तरात्मा का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द पुनः कहते हैं कि जो अन्तर और बाह्य रूप से जल्प अर्थात् विषय विकल्पों से युक्त है, वह बहिरात्मा है। इसके विपरीत जो विषय विकल्पों से रहित है, उसे अन्तरात्मा कहा गया है। इस गाथा की टीका में मलधारी पद्मप्रभुदेव लिखते हैं कि निज आत्मध्यान में लीन अन्तर्मुखी होकर जो साधक प्रशस्त-अप्रशस्त विकल्पजालों में नहीं वर्तता है, वह परम तपोधन श्रमण साक्षात् अन्तरात्मा है। प्रस्तुत प्रसंग में टीकाकार पद्मप्रभुदेव ने आचार्य अमृतचन्द्र की समयसार की आत्मख्याति टीका के उस कलश को भी उद्धरित किया है जिसमें कहा गया है कि जो विकल्पों से ऊपर उठकर समतारसरूपी स्वभाव में रमण करता है वही अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त होता है। इसी को स्पष्ट करते हुए पद्मप्रभुदेव पुनः लिखते
-नियमसार ।
-वही ।
(क) 'पडिकमणापहुदिकिरियं कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं ।।
तेण दु विरागचरिए समणो अब्भुट्ठिदो होदि ।। १५२ ।।' (ख) 'वयणमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चखाण णियमं च । ___ आलोयण वयणमयं तं सव्वं जाण सज्झायं ।। १५३ ।।' (ग) 'जदि सक्कदि कादं जे पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं ।
सत्तिविहीणो जा जइ सद्दहणं चेव कायव्वं ।। १५४ ।।' (घ) 'जिणकहियपरमसुत्ते पडिकमणादिय परीक्खऊण फुडं।
मोणव्वएण जोई णियकज्जं साहए णिच्चं ।। १५५ ।।' १३ ___ 'अंतरबाहिरजप्पे जो वट्टई सो हवेइ बहिरप्पा ।।
जप्पेसु जो ण वट्टई सो उच्चइ अन्तरंगप्पा ।। १५० ।।'
-वही ।
-वही ।
-नियमसार ।
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